Book Title: Itihas ki Dharohar evam Karm Prashnottari
Author(s): Pragunashreeji, Priyadharmashreeji
Publisher: Pragunashreeji Priyadharmashreeji
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________________ बोला मन्त्रीश्वर ! बहुत खराब समाचार है / मन्त्री ने कहा- कोई बात नहीं जो है वह कहो / वह काँपता-काँपता भयभीत होकर बोला- गिरिराज पर आरस (पत्थर) का प्रासाद तो तैयार हो गया है परन्तु उसकी भमती (प्रदक्षिणा) में पवन का गोला प्रवेश होने से मन्दिर फट गया है अर्थात् दरार पड़ गई है / तनिक भी उदास निराश और हताश हुए बिना मन्त्रीश्वर बाहड़ ने उसे चौंसठ (64) स्वर्ण की जीभ भेंट में दी / पास में बैठे लोगों ने पूछा- पहले व्यक्ति को आपने बत्तीस स्वर्ण की जीभ दी थी और इसे चौंसठ क्यों ? तब मन्त्रीश्वर ने कहा- भाई ! मुझे जीते-जीते ही इसने पुनः सुकृत करने का अवसर प्रदान किया है, मेरे मर जाने के बाद यदि मन्दिर का नुकसान होता तो मुझे यह लाभ कहाँ से मिलता ? चार हजार घुड़सवारों को लेकर मन्त्री बाहड़ सिद्धगिरि पर पहुँचे / मन्दिर की दिवारों में पड़ी दरार को अपने नजरों से देखा और शिल्पियों से पूछा- यह कैसे हो गया ? शिल्पियों ने कहा- मन्त्रीश्वर ! भमतीवाला प्रासाद (मन्दिर) बनाने से पहाड़ के ऊपर जोरदार पवन अन्दर भर जाने से मन्दिर फट गया है यदि भमती (प्रदक्षिणा) नहीं बनाते तो शिल्प शास्त्र कहता है कि भमती बिना का मन्दिर बनाने वाले को संतति (सन्तान) का अभाव होता है / अतः मन्त्रीश्वर ! दोनों तरफ मुश्किल है / ___ बिना विचार किए मन्त्री बाहड़ ने कहा- मुझे सन्तान का अभाव हो जाए तो कोई बात नहीं परन्तु मन्दिर ऐसा बनाओ कि हजारों वर्षों तक भी पीछे मुड़कर देखना न पड़े। कुशल शिल्पियों ने बुद्धि लगाई और मध्य मार्ग निकाला / उन्होंने भमती वाले भाग में जाने वाले दोनों दरवाजों को बहुत बड़ी शिला से पैक कर दिया जिससे भीतर हवा का प्रवेश ही न हो सके / (कहा जाता है कि आज जो मन्दिर विद्यमान है वह मन्त्री बाहड़ का ही बनाया हुआ है / दादा के पीछे घूमने वाली भमती, शिलाओं से पैक की हुई दीवार आज भी रंगमण्डप में दिखाई देती है और दादा के मूलगम्भारे के माप 96