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पूर्णता सृष्टि को ही सुखमय, ऐश्वर्यमय मानता है, उसी तरह गुणदृष्टि-युक्त महापुरुष (आत्मा) सकल विश्व को गुणमय ही समझता है ।
प्राणी में रही गुण-दृष्टि का जिस गति से विकास होता जाता है, उसी प्रमाण में उसमें रही राग-द्वेषादि दृष्टि का लोप होता रहता है । फलत : जीवन में रही अशान्ति, असुख, क्लेश, संतापादि नष्ट होते जाते हैं और उसके स्थान पर परम शान्ति, मन:स्वस्थता, स्थिरता और परमानंद का आविर्भाव होता है ।
पूर्णता या परोपाधेः सा याचितकमण्डनम् ।
या तु स्वाभाविकी सैव, जात्यरत्नविभानिभा ॥२॥ अर्थ : परायी वस्तु के निमित्त से प्राप्त पूर्णता, किसी से उधार मांगकर
लाये गये आभूषण के समान है, जबकि वास्तविक पूर्णता अमूल्य
रन की चकाचौंध कर देने वाली अलौकिक कान्ति के समान है। विवेचन : मान लो तुम्हारे यहां शादी-विवाह का प्रसंग है, लेकिन तुम्हारे पास आवश्यक प्राभूषण-अलंकारों का अभाव है। उसे पूरा करने के लिये तुम अपने किसी मित्र अथवा रिश्तेदार से आभूषणादि मूल्यवान वस्तुएँ माँग लाये । परिणामतः बड़ी सजधज व धमधाम से शादी का प्रसंग पूरा हो गया। लोगों में बड़ी वाह-वाह हुई तुम्हारे ऐश्वर्य और बड़प्पन की। जहाँ देखो वहाँ, तुम्हारी और तुम्हारे परिवार की प्रशंसा हुई । तुम्हारी मनोकामना पूरी हुई । तुम पूर्ण रूप से संतुष्ट हो गये । लेकिन वास्तविकता क्या है ? क्या तुम इस घटना से सचमुच संतुष्ट हुए, आनंदित हुए ? जो शोभा हुई और बडप्पन मिला, वह सही है ? जिन प्राभूषणों के दिखावे से लोगों में नाम हुमा, क्या वे अपने हैं ? तुम और तुम्हारा मन इस तथ्य से भली-भाँति परिचित है कि अलंकार पराये-उधार लाये हुए हैं और सारा दिखावा झूठा है । प्रसंग पूरा होते ही लोगों की अमानत (आभूषणादि वस्तुएँ) लौटांनी है । अतः हम बाह्य रुप में भले ही प्रसन्न हों; लेकिन प्रान्तरमन से तो दुःखो होते हैं, व्यथित ही होते हैं ।
ठीक उसी तरह पूर्व भव के कर्मोदय से मानव-भव में प्राप्त सौन्दर्य, कला, विद्या, शान्ति और सुखादि ऋद्धि-सिद्धि भी पराये गहनों
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