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ज्ञानसार ऐन्द्रश्रीसुखमग्नेन, लोलालग्नमिवाखिलम् ।
सच्चिदानन्दपूर्णन, पूर्ण जगदवेक्ष्यते ॥१॥ अर्थ : स्वर्गीय सुख एवं ऐश्वर्य में निमग्न देवेन्द्र जिा तरह पूरे विश्व को
सुखी और ऐश्वयंशाली देखता है, ठीक उसी तरह सत्-चित्-आनन्द से परिपूर्ण योगी पुरुष विश्व को ज्ञान-दर्शन-चारित्र से युक्त, परिपूर्ण
देखता है। विवेचन : जिस तरह सुखो प्राणो अपनी ही तरह अन्य प्राणियों को भी सुखी मानता है, ठीक उसी तरह जो पूर्णात्मा है, वह अन्यों को स्वयं की तरह पूर्ण समझती है और उसी भाँति सत-चित्-प्रानन्द से परिपूर्ण आत्मा निखिल विश्व की जीवात्माओं में सत्-चित्-आनन्दयुक्त पूर्णता का दर्शन करती है।
यह शाश्वत् सत्य, पूर्ण सुख की परिशोध-अन्वेषण करने हेतु कार्यरत आत्मा को दो महत्त्वपूर्ण बातों को निर्देश देता है :
१. समग्र चेतन-सृष्टि में सत-चित-प्रानन्द की परिपूर्णता का अनुभव करने के लिये दृष्टा पुरूष के लिए सत्-चित-आनन्द युक्त पूर्णता की प्राप्ति आवश्यक है ।
२. यदि समग्र चेतन-सृष्टि में से राग-द्वेषादि कषायों को जडमूल से उखाड फेंकना हो तो उसमें पूर्णता का अनुभव करने हेतु पुरुषार्थ [प्रयत्न) करना शुरु कर देना चाहिये ।
जब तक जीवात्मा अपूर्ण है, परिपूर्ण नहीं है, तब तक वह निखिल विश्व की चेतन-सृष्टि में पूर्णता के दर्शन करने में सर्वथा असमर्थ है । लेकिन इसके लिये वह प्रयत्न अवश्य कर सकता है । मतलब यह कि वह अपने प्रयत्न-बल से पूर्णता का अल्पांश में ही क्यों न हो, दर्शन अवश्य कर सकता है। पूर्णता के अंश के दर्शन का ही अर्थ है-गुणदर्शन । हर प्राणी में थोडे-बहुत प्रमाण में ही भले क्यों न हों, लेकिन गुण अवश्य होते हैं । जैसे-जैसे हमारी गुण-दृष्टि अन्तर्मुख होती जाएगी वैसे-वैसे हमें उसमें गुणों के दर्शन होते जायेंगे । जहाँ गुण-दृष्टि नहीं, वहाँ गुण-दर्शन नहीं । क्योंकि यह कहावत है कि "जैसी दृष्टि वैसो सष्टि' । स्वर्ग के ऐश्वर्य में आकंठ डूबा देवेन्द्र जिस तरह समस्त
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