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१. पूर्णता जीव अपूर्ण है, शिव पूर्ण है । अतः अपूर्णता के घोर अंधकार मेंसे पूर्णता के उज्ज्वल प्रकाश की ओर जाने का उपक्रम करें। क्योंकि समग्र धर्मपुरुषार्थ का ध्येय पूर्णता की प्राप्ति है । यही अंतिम ध्येय है, आखिरी मंजिल है।।
फलस्वरुप, आत्मा की ऐसी परिपूर्णता प्राप्त कर लें कि कभी अपूर्ण होने का अवसर ही न आये। अपूर्णता का प्रादुर्भाव होने की संभावना ही न रहे !
युग-युगांतर से मोह और अज्ञान की गहरी खाई में दबी चेतना को, पूर्णता की प्रकाश-किरण आकर्षित करती रहती है।
अपूर्णः पूर्णतामेति = अपूर्ण पूर्णता पाये ! ग्रंथकार महात्माने कैसी गहनगंभीर फिर भी मृदु बात का सूत्रपात किया है ! एक ही पंक्ति में, गागर में सागर भर दिया है । आत्मा की पूर्णता प्राप्त करने हेतु कर्मजन्य पदार्थों से रिक्त हो जाएँ!
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