Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 296
________________ गयचिन्तामणिः [ १६ जीबंधकृत - १६६. तन्निरीक्षणक्षण एव क्षीणनिःशेषश्रमः श्रावकश्रेष्ठोऽयं काष्ठागतप्रमोदः साधुधौतपादः पादपवल्लरोतल्लजसंफुल्लफुल्सोकरमरविवादिहानुधावामधुकरण करेणापचित्यापचितिविधिज्ञोऽयं विहिताञ्जलिरधिकभक्तिभक्तिभरनिगलनिगलित इव कथंचिद्गलाद्गलति सकलवाङ्मयातिबतिकीर्तेर्भगवतः संस्तवे, संस्तवनौत्सुक्याङ्क रानुकारिरोमाञ्चं मुञ्चति शरोरे, शारदार५ विन्द इव मकरन्द्रबिन्दुभिरानन्दाश्रुजलैः प्लाविते लोचनयुगले, अचलितमूतिरतुलतूतिः कर्तव्यमपश्यावश्येन्द्रियस्त्रिकरणशूद्धिस्त्रि परीत्य क्षणमास्थितः श्रोपीठाग्रस्थितिरारचय्य कुसुमाञ्जलि ६१६१, तन्निरीक्षणेति-तस्य श्रीजिनालयस्य निरीक्षणक्षण एवं विलोकनावसर एव क्षीणों नटो नि शेयश्रमः संपूर्ण खेदो अस्य तथाभूत: प्रावकश्रेष्ठः श्रावकशिरोमणि: 'मूलोत्तरगुणनिष्टामधितिष्टन् पञ्चगुरुपदशरण्यः । दानयजनप्रधानो ज्ञानसुधा श्रावकः पिपासुः स्यात्' इति श्रावकलक्षणम् । काष्ठागतश्वरमसीमगतः प्रमोदो हषों यस्य सः साधु सम्यक् धोती प्रक्षालितो पादौ येन तयाभूतः सन्, पादपाश्र वृक्षाश्च वल्लयश्च लताश्चेति पादपवलयः प्रशस्ताः पादपवली इति पादपवलरी तल्ल जा 'मल्लिका मचचिंका प्रकाण्डमुद्धतल्लो । प्रशस्तवाचकान्यमून्ययः शुभाबहो विधिः' इत्यमरः पादपवल्लरीतलजानां यानि संफुलफुल्लानि विकसितकुसुमानि तेषामुत्करः समूहस्तम्, अरविन्दसंदेहेन कमलविभ्रमणानुधावन्तो मधुकरा भ्रमरा यं तेन करेण पाणिना अपचित्य संचितं कृत्वा अपचितिविधिनः पूजाविधिज्ञानवान् अयं १५ जीवधरी विहिताञ्जलिः कृताञ्जलिः अधिक मनिर्यस्य तथाभूतः सन्, सकलवाङ्मयस्यातिवर्तिनी निखिलद्वादशाङ्गातिवर्तिनी कीर्तिर्यस्य तथाभूतस्य मगवतः संस्तवे मझिमर एव निगलो निगडो बन्धनं तन निगलिते इव निगडिते इव कथंचित् केनापि प्रकारेण गलान् कण्ठान गलति निजामति सति, शरीरे संस्तवने यदी सुक्यं तस्याङ्कराः प्ररोहास्तदनुकारी यो रोमाञ्चस्तं मुञ्चति सति, मकरन्दविन्दुभिः कौसुम सीकरः शारदारविन्द इव शारदसरोरुह इव आनन्दाश्रुजलैहपाश्रुसलिलैलोचनयुगले नयनयुगे प्लावित २० इव, अचलिता निश्चला मूति: शरीरं यस्य सः, अतुलानुपमा तूतिः स्फूतियस्य सः कतव्यं करणीयम् अपश्यन् अनवलोकयन् अवश्यानीन्द्रियाणि यस्य सोऽस्वाधीनहषीकः त्रिकरणैर्मनोवचःकायैः शुद्धिर्यस्थ तथाभूतः निः ब्रोन् रारान् परीत्य परिक्रम्य क्षणम् आस्थितः श्रीपीठाने श्रीसिंहासनाने थितिर्थस्थ ई १६६. जिनालयके देखने के समय ही जिनकी समस्त थकावट दूर हो गयी थी, जो श्रावकोंमें श्रेष्ट थे, जिनका हर्ष चरम सीमाको प्राप्त हो रहा था, और जिन्होंने अच्छी २५ तरह पैर धोये थे ऐसे जीवन्धरस्वामी, कमलके सन्देहसे जिसके पीछे भ्रमर दौड़ रहे थे ऐसे हाथसे उत्तमोत्तम वृक्ष और लताओंके खिले हुए फूलोंके समूहको तोड़कर बहुत भारी भक्तिसे युक्त हो हाथ जोड़ पूजा करने के लिए उद्यत हुए। वे पूजाको विधिको अच्छी तरह जाननेवाले थे। समस्त द्वादशांगको अतिक्रान्त करनेवाली कोर्तिसे युक्त श्री जिनेन्द्र भगवान्का स्तवन भक्तिसमूहरूपी बेड़ीसे छूटे हुए के समान किसी तरह ३० उनके कण्ठसे बाहर निकलने लगा। उनका शरीर स्तवनकी उत्सुकतारूपी अंकुरोका अनु. करण करनेवाले रोमांचको छोड़ने लगा। जिसप्रकार शरद् ऋतुका कमल मकरन्दकी बूंदोंसे च्याप्त हो जाता है उसीप्रकार उनका नेत्रयुगल आनन्दाश्रुओंके समूहसे व्याप्त हो गया। उस समय वे निश्चल शरीरके धारक थे, अनुपम शीघ्रतासे युक्त थे, दूसरे कार्यकी ओर देखते भी नहीं थे, उनकी इन्द्रियाँ उनके आधीन नहीं थीं, और वे मन वचन कायकी शुद्धिसे ३५ युक्त थे। तीन प्रदक्षिणाएँ देकर वे क्षण भरके लिए रुक गये और भगवान के सिंहासनके -- - - १. क० ख० ग स्तवे । २. म० आनन्दाश्रुजालः ।

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