Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith
View full book text
________________
गचचिन्तामणि
[ २२२ सुरमम्ज:थेषु सायन्तननियमध्यानाग्निसंयुक्तसंयतेष्विव जातेषु सोधेषु. दुर्दशां स्वान्तेष्विव तमसाक्रान्तेषु दिगन्तेषु, क्रमेण च मदनमहाराजश्वेतातपत्रे रजनीरजतताटङ्के स्फटिकोपलघटितमदनशरमार्जनशिलाशकलकल्पे पुष्पबाणाभिषेकपूर्णकलशायमाने सर्वजनानन्दकारिणि रागराजप्रियसुहृदि राजति
रोहिणीरमणे, दुग्धोदधिशोकरैरिव घनसारपरागैरिव मलयजरसविसरैरिब पीयूषफेनपिण्डैरिव ५ पारदरससरिद्धिरिव स्फटिकरेणुभिरिव मदनानलभस्मभिरिव रजनीकरकरनिकरैरापूरिते भवनविवरे, विकचकैरवपरिमलमिलितालिकुलझंकारविरचितविरहि जनतापे मधुमदमत्तमत्तकाशिनीकेशकलापकुसुमामोदामोदितदशदिशि समाध्मापितप्रद्युम्नपावके मन्दमन्दमावाति मातरिश्वनि,
दीप्यमानैरन्तर्गतप्रदीपैमध्यस्थितप्रदीपैः सनाथाः सहितास्तेषु सोधेषु प्रासादेषु सायन्तननियमेषु
सायंकालिनियमेषु ध्यानाग्निदा ध्यानानलेन संयुक्ताः सहिता ये संयता मुनयस्तेवित्र जातेषु, दिगन्तेषु १० काष्टान्तेषु दुर्दशां मिथ्यादृष्टोनां स्वान्नेविव वित्तेष्विव तमसा मोहेन पक्षे तिमिरेणाकान्तेषु सरसु, क्रमेण
च क्रमशश्च मदनमहाराजस्य कामभूपालस्य श्वेतातपने सितातपवारणे, रजन्या निशाया रजततारके रूप्यकरण्टक, स्फटिकोपलन घोटत निति यद् मदनस्य मारस्य शरमार्जनशिलाशकलं वाणोत्तेजनशिलाखण्डम् ईषदूनं तदिति स्फटिकोपकघटितशरमार्जनशिलाशकल्पस्तस्मिन् , पुपयाणस्य कामस्य योऽभिषेक
स्नपनं तस्त्र पूर्णकलश इवाचरतीति पुष्पाणाभिषेकपूर्णकल शायमानस्तस्मिन् , सर्वजनानन्दकारिणि १५ निखिलनरहर्षविधायिनि, राग एव राजा रागराजतस्य प्रियसुहृस्प्रियमित्रं तस्मिन् , रोहिणीरमणे चन्द्रमसि
राजति शोममाने, दुग्धोदधिशीकरैरिव पयःपयोधिपृषताभिरिख, घनसारपरागैरिय कर्पूरचूर्णरिच, मलयजरस. विसरैरिव पाटोरनिःश्याम्पसमूहरिब, पीयूषफेनपिण्डैरिव सुधादिण्डीरसमूहैरिव पारदरसस्य सूदरसस्य सरिद्भिरिव नदीमिरिख, स्फटिकः सितमणिस्तस्य रेणुभी रजोभिरिव, मदनानलमस्मभिरिव स्मराग्निभूतिमि
रिव, रजनीकरकरनिकरः शीतरश्निरश्मिराशिमिः भुवनविवरे जगदन्तराले आरिते संभरिते, विकचानां २० विकसितानां कैरवाणां कुमुहानां परिमलेन विमदोत्यसौरभ्येण मिलितानि संगतानि यान्यलि कुलानि
भ्रमरसमूहस्तस्प झंकारेण गुञ्जनशब्देन विरचितो विहिसो विरहिजनानां विप्रयुगपुरुषाणो तापः खेदो ग्रेन तस्मिन् , मधुमदेन मद्यमदेन सत्ता या मत्तकाशिन्यः सुन्दयस्तासां केशकलापेषु शिरसिजसमूहेषु विद्यमानानि बानि कुसुमानि पुराणि षामामोदेनातिनिहारिगन्धेनामोदिताः सुरमिता दश दिशो दश काटा येन तस्मिन्,
समा:मापितः प्रचण्डी कृतः प्रद्युम्नपावकः स्मर हुताशनो येन तस्मिन् , मातरिश्वनि पपने मन्दमन्दं शनैः शनैः २५ ध्यानरूपी अग्निसे सहित मुनियों के समान जान पड़ने लगे। दिशाओंके अन्तिमतट मिथ्या
दृष्टि जीवोंके हृदयोंके समान अन्धकार ( पक्ष में मोह ) से आक्रान्त हो गये। क्रम क्रमसे जो मदनरूपी महाराजका सफेद छत्र था, रात्रिरूपी लीका चाँदीका कर्णाभरण था, जो कामके बाणों के साफ करनेके लिए स्फटिक पाषाणसे निर्मित शिलाके एक खण्डके समान था, काम
देवके अभिषेकके लिए निर्मित पूर्ण कलशके समान जान पड़ता था, सब मनुष्योंको आनन्द ३० उत्पन्न करनेवाला था, और रागरूपी राजाका प्रिय मित्र था ऐसा चन्द्रमा सुशोभित होने
लगा । संसारका मध्यभाग चन्द्रमाकी उन किरणों के समूहसे व्याप्त हो गया जो क्षीरसमुद्र के जलकणोंके समान, कपूरको परागके समान, चन्दनरसके समूह के समान, अमृत के फेनपिण्डके समान, पारेके रसकी धाराके समान, स्फटिककी धूलिके समान, अथवा कामाग्नि
की भस्मके समान जान पड़ते थे। खिले हुए कुमुद्रोंकी सुगन्धिसे एकत्रित भ्रमर समूहकी १, झंकारसे बिरही जनोंको सन्ताप उत्पन्न करनेवाली, मधुके नशासे मत्त स्त्रियोंके केश-कलापमें
लगे हुए फूलों की सुगन्धिसे दशों दिशाओंको सुगन्धित करनेवाली; एवं कामरूपी अग्निको प्रज्वलित करनेवाली वायु धीरे-धीरे बहने लगी। हृदयको भेदनेवाला कामदेव धनुष चढ़ाकर

Page Navigation
1 ... 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495