Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 417
________________ - शोभायात्रा ] दशमो लम्भः २५५. तावता तदवलोकनकुतूहलोद्भवदुद्दामसंरम्भाश्चरणयोः प्रथमं परिस्पन्दमानं चरणमन्यस्मान्मान्यतरं मन्यमानाः, अग्नभावि पूर्वाङ्गमनुलग्नादपराङ्गादधिकगौरवकलितमाकलयन्त्यः, करणेष्वपि पुरःप्रयाणनिपुणमन्तःकरणमतिकृतार्थ वितर्कयन्त्यः, सरभसगमनविरोधिनः स्तनभारात्तनुतरमनुकूलमबलग्नं श्रद्दधानाः स्वाङ्गभ्रष्टान्यवशिष्टेभ्यो लाघवपोषोणि भूषणान्युपकारकारोणि गणयन्त्यः, समागत्य स्फुरदतिरागमनोहराधरपल्लवा वल्लयं इब कुसुमामोदमहिता माधवसंगमकृतासङ्गाः, चलद्वलोभङ्गतरङ्गभासुरा रसमय्यः सरित इव सरित्पतिम्, ६२५५. तावतेति--तावता तावस्कालेन सत्य जीवंधरस्थायलोकनकुतूहलेन प्रमदाः पुरन्ध्रयः समासदन प्राप्नुवन् । अथ तासां विशेष गान्याह-दर्शनकुनुकेनोनयन् उद्दामसंरम्भ उत्कट वरा यासां ताः, प्रथमं प्राक् परिष्पन्दमान चलन्त चरण पादम-चस्मारभार मान्यसरमतिशयेन मान्यं मन्यमाना जानन्त्यः; अने भवतीत्येवंशीलमनमावि पूर्वाङ्गं पूर्वावयवम् अनुलग्नापश्चाललग्नात् अपराङ्गादित रावयवात् १० अधिकगौरवेण कलितमित्यधिकगौरवकलितम् भाकक यन्त्यो मन्यमानाः, करणेबपीन्द्रियेषु पुरःप्रयाणेऽ. ग्रयाने निपुणं चतुरम् अन्तःकरणं मनोऽतिकृतार्थम् अतिशयेन सार्थक वितर्कयन्त्यो जानन्त्यः, सरमस्य गमनस्य शीघ्रप्रयाणस्य विरोधी तस्मात् स्तन भारादुरोजमारात् तनुतरमतिकृशम् अवलग्न मध्यम् अनुकूलं शीघ्रगमनयोग्यं श्रद्धधाना मन्यमान, स्वाङ्गभ्रष्टशनि स्वशरीरपतितानि अतएव लाघवपोषाणि निर्मरत्वोपपादकानि भूषणानि अंबशिष्टेभ्यो भूषणेभ्य उपकारका णि उपकत गि गगयन्त्यो विश्वसन्त्यः १५ स्फुरता प्रकटीभवतातिरागण मनोहरोऽधरः पल्लव इव यास ताः कुसुमानामिवामोदन गन्धेन महिताः शोभिताः मा-लक्ष्मीस्तस्या धर: पतिजीवंधरस्तस्य संगम कृती विहित आसन आसक्तिर्याभिस्ता; अतएत्र वल्लर्य इव लसा इव बल्ल रीपक्षे स्फुरदतिरागमनोहराधर एवं पल्लवी यास ताः, कुसुमानां पुप्पाणामामोदेन हर्षेण सौगन्ध्येन वा महिता: माधवो वसन्तस्तस्य सलमे कृतासङ्गाः, चल द्वलीभङ्गा तर इव कल्लोला इव तैर्भासुराः रखमय्यः स्नेहयुका सरितो नधः सरिस्पतिमिव नदीपतिमिक, सरिपक्षे चलद्ध- २० लीमना एव चञ्चलत्रिवलिविच्छित्तय एवं तरङ्गाः कल्लोलेस्तै समानाः रसमय्यो जलमय्यः, कण्टकानां रोमाञ्चानां निकरण दन्तुरिन्त व्या वपुः शरीरं यासां ताः, सतिलकाः स्थासकसहिताः वनभुवः कानना ५५. उसी समय उनके देखनेके कुतूहलसे जिनकी बहुत भारी तैयारियाँ हो रही थीं, जो दोनों चरणों में पहले चलनेवाले चरणको दूसरे चरणको अपेक्षा अत्यन्त मान्य मान रही थीं, जो आगे होनेवाले पूर्वांगको पीछे लगे हुए दूसरे अंगसे अधिक गौरवशाली २५ समझती थी, जो इन्द्रियों में भी आगे चलने में निपुण अन्तःकरणको अत्यन्त कृतार्थ-कृतकृत्य समझती थी, जो सवेग गमनमें विरोध उत्पन्न करनेवाले स्तनभारकी अपेक्षा अत्यन्त कृया मध्यभागको अनुकूल मानती थीं अपने अवयवोंसे गिरे और लघुताको पुष्ट करनेवाले आभूपणोंको अन्य अवशिष्ट आभूपोंसे उपकारी गिनती थीं, जिनका अत्यधिक लालिमासे मनोहर अधर पल्लप हिल रहा था और इसीलिए जो फूलों की सुगन्धिसे सहित वसन्त के ३० साथ समागम करनेमें उत्सुक लताओंके समान जान पड़ती थीं। जो त्वचा की चल्वल सिकुडनोरूपी तरंगांसे शोभायमान एवं रसमयी-शृंगारसे युक्त ( पक्षमें जलमयो) थी इसलिये ऐसी जान पड़ती थीं मानो समुद्र के पास जाती हुई नदियाँ ही हों। जा रोमांचोंसे व्याप्त शरीरको धारण करती हुई तिलकसे सहित थीं ( पक्षमें तिलक वृअसे युक्त थीं) इसलिए १. क. उपकारीणि ।

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