Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 474
________________ गचिन्तामणिः [ ६९१ जीवंधरस्यमाने, ध्यानाग्निसाक्षिकमात्मसामर्थ्यादात्मनैवात्मने वितीर्णा पूर्णनिखिलगुणां प्रगुगरमणीयस्व. भाववेषभूषां योषान्तरासंभवदनुभवपौनःपुन्येनाप्यखिनामन्योन्यमन्यूनानतिरिक्तरतिशालीनतया समानभर्तृशीलामतीव केवलां कैवल्यवधू विधिवदुपयम्य सदाप्यनुपरतकाम्ययाप्यनघया तयवा घातिचतुष्टयेऽपिघातिते प्रतिघरहितसुबहेतुसमृद्ध सिद्धिगृहोदरमासाद्यानवद्यमात्मसंवेद्यमात्मसंभवमा५ त्मस्वभावमात्माह्लादनमनन्तमनन्तरायमनन्तकालस्थितिकमनन्तज्ञानवोर्यदशात्मकमनन्तकर्मक्षया - पेक्षमनन्तपूर्व नननानुपलब्धपूर्व' पुनरनुत्पाद्यमनुपरममनुपममनुत्कर्षमनपकर्षमनुक्षणसुलभं सुम्समनुबोभूयते । सुरासुरनरख चरा देवदानव मानवविद्याधरास्त: करपोडाहः पाणिरोडन योग्यो महाह कल्याणविधिः तस्मिन् विधीयमाने क्रिपमागे ध्यान मेवाग्निानाग्निः स साक्षो यस्मिन् कमणि वद्यया स्यात्तथा आत्मसामर्थ्यात् १० आमनैव स्वेनैव प्रारमने स्वस्मै बितीणां द तां, पूर्गा निखिल गाः समममा यस्यास्ता, मणरम गोया सातिशयसुमगा स्वभाववेशभूषा निसर्गनेपथ्यालकारा यस्यास्ताम् , योषान्तरायामन्यस्त्रि पामसंभवद् यद् अनुभवस्योपभोगस्य पौनःपुन्यं तेनापि अस्निनां खेदरहिताम् , अन्योन्यं मियो अन्यूना अहोना अनतिरिका अनधिका या रतिस्तया शालीनतया अपृष्टतथा समानं भर्तृशोलं अस्पाताभूतामित्र केवलामवितीयां कैवल्यवधू केवलज्ञानयोषां विधिवद् यथाविधि उपयम्य विवाह्य सदापि सर्वदापि अनुयरत काम्यं यस्या. १५ नयाभूयापि अनवया निष्पापया तपैर कैवल्यवाद अवातिचतुष्टयेऽपि वेदनीयायुर्नामगोत्रचतुष्टयेऽपि घातिते क्षपिते प्रतिवरहितं प्रतिरक्षातीतं यस्तु तस्य हेतुना समृद्धं समन्नम् , सिद्धिगृहोदरं मुकिमन्दिर मध्यम आसाद्य प्राप्त अनवयं निर्दुटम् प्रारमसंवेद्यं स्वेन संवेतुं योग्या, भात्मसंमर्च स्त्रोत्पन्नम्, भारमा हाई स्वहर्ष शारगम् , अनन्त मन्तातीतम्, अनन्तरायं निर्विघ्नम् , अनन्तकालं स्थितियस्य तत् , अनन्तज्ञान वीर्यदश आस्मा स्वरूपं यस्य तत्, अनन्तकर्मक्षयमपेक्षत इस्य नमसम्मभयापेक्षम् , अनन्तेषु पूर्वजननेपु २० पूर्वजन्मसु पूर्व प्र.ग्न लावमित्यनन्तपूर्वजन नानुपकब्धपूर्वम् , पुनरनन्तरम् अनुत्यायम् उत्पादयितुमनहम, अनुपरमं विनाशरहितम् अनुस्कर्ष मुस्कर्षरहितम् अनपकर्ष हानिरहितम् अनुक्षण सुलभं प्रतिक्षणसुलम सुखम् अनुबाभूयतेऽत्यर्थमनुभवति । और विद्याधरोंने विवाह के योग्य महाकल्याण किया और उन्होंने ध्यानरूपी अग्निका साक्षीपूर्वक उस एकाकी कैवल्य-केवलज्ञान रूपी बधू को विधि-पूर्वक विवाहा कि जो २५ अपनी सामर्थ्यसे अपने आपके द्वारा अपने आपके लिए दी गयी थी, जिसके समस्त गुण पूर्णताको प्राप्त थे, जिसका स्वभाव और वेषभूषा अत्यन्त रमणीय थी, जो दूसरी स्त्रियोंमें सम्भव नहीं होनेवाले अनुभव की पुन -पुनः प्रवृत्तिसे भी खिन्न नहीं होती थी और परस्पर हीनाधिकतासे रहित रतिसे सुशोभित होने के कारण जो पतिके समान हो स्वभावको धारण करनेवाली थी। इच्छाके सदा अनुपरत रहनेपर भी जो निर्दोप थी एसी उसी कैवल्य३. वधूके द्वारा चार अधातिया कर्मो के नष्ट होनेपर वे निर्वाध सुखके कारणोंसे समृद्ध सिद्धि रूपी घरके मध्य भागको प्राप्त कर उस सुखका अनुभव करने लगे कि जो निष्पाप था। अपने आपके द्वारा संवेद्य था, आत्मस्वभाव रूप था, आत्माको आह्वाद देनेवाला था, अनन्त था, अन्तरायरहित था, अनन्त काल तक स्थित रहनेवाला था, अनन्त ज्ञान, बल और दर्शन स्वरूप था, अनन्त कर्मों के क्षयकी अपेक्षा रखनेवाला था, अनन्त पूर्व जन्मों में जो 3 पहले कभी भी प्राप्त नहीं हुआ था, जिसे फिर कभी उत्पन्न नहीं करना है, जिसका कभी उपरम---अभाव नहीं होता है, जो अनुपम है, जिसमें कभी न उत्कर्ष होता है और न कभी १.म. विज्ञान।

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