Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 473
________________ -तपश्चर्यावृत्तान्तः ] एकादशो कम्मः क्षपकश्रेणिमारुह्य प्रक्षयितुं कमरिपून्यथाक्रमं प्रक्रममाणः, स्वयं पाणी कृतेन यत्नकृतावधानत्सरुकेणे काग्रयातिशयधारेण वीर्यगुणप्रष्ठ पुत्रेत भावनापर्यायनिशान जनैशित्येन निर्मलज्ञाननिर्माणेन परमकारुपयोगर्भे ग बहलावरणनि बोलोखातेन मैत्रोस्नेहोपलिप्तेन रत्नत्रयातिरायरूपेण परमशुक्लध्यान कौक्षेपण क्रमेण धर्मवैरिणः सर्वकर्मनिर्माणस्य दुर्मोनस्य मोहनोयकर्ममहारा नस्य मोलभूतत्वाद व समनायाः साहसोः सहसा नासीरता प्राप्ताः सप्त प्रकृतीनिहत्य निरुपमनिजात्म- ५ स्वभावविधातिनि धाति कमवतुष्टयप समू लयात हते, निहत कमरिण मेन मुनिराज पुजयितुं पुजी भूतैरकम शक वक्र वरपरणेन्द्रप्रभु वसुरासुतर बरे करपीडाहमहाईकल्याणविधी विधीयकर्माण्यव रिपयः शन्न बस्तान प्रक्षयितुं प्रक्षपयितुं यथाक्रमं प्रक्रममाण उद्यज.नः, स्वयं स्वत: पाणी हस्तेकृतेन तेन बन्नेन कृतमवधानमैकामयमंव समुष्टिका यस्य तेन, एकाग्याति राय पर धारा यस्य तेन, वीर्यगुण पत्र प्रष्टप्टष्टं श्रेष्टपृष्टं यस्य तेन, भावना पायो यस्य तथाभूतं यत् निशानं तीक्षमीकरणसाधनं १० त नैशियं तैइण्यं यस्य तेन, निर्मलजानन मिथ्यावरहितबोधेन निर्माणं यस्य तेन, परमकारुण्यमेव पयो जलं गौं यस्य तेन, बहुलावरणमध निचोल को शस्तस्मात् उखातेन उद्धृतेन मैथ्येव स्नेहस्तैले तेन लिप्तेन, रत्नत्रयातिशयः सम्यगदर्शनशानचारित्राभिधानरत्ननयमको रूपं यस्य तेन, परम शुक्लध्यानमंत्र कोक्षेयक कृपाणस्तेन क्रमण धर्मवैरिण आत्मस्वमायशत्रीः सर्वकर्मणां निर्माणं यस्मात्तस्य दुर्मो बस्य दुःखन मोक्तुं शक्यस्य मोहनीय कमैंव महाराजो राजाधिराजस्तस्य मौलभूतःवात् मन्ध्यादिमूल वर्गवात् अजस्त्रसहाया ११ निरन्तरसहाया. साहलोः सहस्त्रावान्तर दयुमाः सहसा झटिति नापीरतां प्रबभटता प्रासा: सप्त प्रकृती: मिथ्यात्वं सम्पमिथ्यावं सम्यक्त्वम् अनन्तानुबन्धिक्रोध-मान-मामा-लोमाश्चेति सप्त प्रकृतयः निहस्य नाशयित्या निरुपममनु म निजात्मस्वभावं विधातयतीति तथा सस्मिन् बातिकमणी ज्ञानाचरण दर्शनावरणमोहनीयान्तरायाणां चतुष्टयं तस्मिन्नपि समूलं हत्वेति समूल वातं ते क्षपिते सति, निहताः कर्मवैरिणः कमरिपवो येन तथा भूतम् एनं मुनिजं जबरमहा मुनि पूजयितुनर्वयितुं पुम्जोभूतैरे कंत्रापस्थितः अक्रम २० युगपत् शक इन्द्रः, 'चक्रवाचकवी, धणेन्द्रो भवनबासोन्द्रः तं प्रमुखाः प्रधाना येषु तथाभूता ये इस प्रकार दुर्वह बाह्य तपोंके द्वारा इन्द्रियों की स्वतन्त्रताको दूर कर आत्मस्वतन्त्रताके निष्पन्न होनेपर बिना किसी विघ्न-बाधाके लगातार आम्वन्तर तपोको जो बलपूर्वक कर रह थे, तथा चार प्रकारकी आराधना ही जिनकी चतुरंगिणी सेना थी ऐसे जीवन्धर महामुनि क्षपक श्रेणिपर आरूढ हो कर्म रूपी शत्रुओं का क्षय करने के लिए यथाक्रमसे उद्यत २५ हो रहे थे। जिसे स्वयं हाथ में धारण किया था, यत्नपूर्वक की हुई निष्प्रमाद वृत्ति ही जिसकी मूट थी, एकाग्रताका अतिशय ही जिसकी धारा थी, वीय गुण हो जिसका श्रेष्ठ पृष्ठ भाग था, भावना रूप सानसे जिसमें नोगता उत्पन्न की गयी थी, निर्मल ज्ञानसे जिसको रचना हुई थी, परम दयाभाव रूप पानी जिसके ऊपर चढ़ाया गया था, अत्यधिक आवरण रूपी म्यानसे जा निकाला गया था, मैत्रीरूपी चिकनाईसे जो उपलिन था, और रत्नत्रय ३० ही जिसका अतिशय रूपं था ऐसे परम शुक्ल ध्यान रूपी कृराणसे वे क्रम-क्रमसे धर्म के वैरी, समस्त कमाँ की रचना करनेवाले, कठिनाईसे छूटने योग्य मोहनीय कमरूपा महागजको मूलभूत होनेसे निरन्तर सहायता करनेवाली हजार रूपताको धारण करनेवाली एवं सेनाको प्रमुखताको प्राप्त सात प्रकृतियों को नष्ट कर जब अनुपम आत्म-स्वभावक घातक चार घातिया कर्म भी समूल नष्ट हो गये तब कर्मरूपी वैरीको नष्ट करनेवाले इन मुनिराजको ३५ पूजा करने के लिए एक साथ एकत्रित हुए इन्द्र चक्रवर्ती धरणेन्द्र आदि सुर असुर मनुष्य १. म० प्रक्षेतुं । २. द.० बहुलावरण ।

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