Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 415
________________ - राज्याभिषेकवृत्तान्तः ] दशमी लग्मः ३७७ पुनरुक्तपुप्पोपहारमण्डनादास्थानमण्डपादुत्थाय ततो निर्गत्य प्रसरत्यपि प्रणामलीलालालसानां भूभुजामुन्मेषिणि चूडामणिमरीचिनिचयवालातपे ससंभ्रमावजितमकुटप्रच्युतापीडकुसुमडोलायमानमधुकरकुलान्धकारकुटमलायमानकोमलाञ्जलिकमलसहस्रकरम्बितमम्बरतलमालोकयन् 'जय जय' इति तारतर मुद्गायतो वन्दिवृन्दस्यामन्ददुन्दुभिगम्भीरॅनिर्घोषानुपातगायतशङ्खध्वानमिश्नं प्रहतमदलस्निग्धनिहदिमांसलं कांस्यतालरवसंकुलमालोकशब्दमाकर्णयन् आलोलकर्णपल्लवाल- ५ म्बित्रालचामरकलापाममलकार्तस्वरकल्पितालंकारकान्तां चारुकोमलपुष्करकरां रांभ्रममाधोरणसमुपनीतां साक्षान्मूतिमतीमिव जयलक्ष्मी जयलक्ष्मी नाम करेणुकामारुह्य हंसतुल मृदुचीनपट्टोपधाने ताभिः पुनरुतं द्विरुपीरितं पुष्पोपहारमादनं यस्मिस्तधाभुतान् भास्थानमाडसान उत्थाय ततो मगडपान् निर्गत्य प्रगामकोलायो ननस्कारलीलायां लालसा मनोरथा येषां तेयां भूभुना राज्ञाम् उन्लेषिणि वर्धनशीले चुडामणिमरी बीनां शिवामणिरश्मीनां निचयः समूह पुत्र बाकातपः प्रत्यूष वर्मस्तस्मिन् प्रसरत्यपि १० ससंभ्रमं सत्वरमार्जितेभ्यो नतेभ्यो मरेपो मौलिभ्यः प्रयुतानि पतितानि यान्यापीडकुसुमानि शेखरपुष्पाणि तेपु दोलायमानं चलचलं यन्मधुकर कुलं भ्रमरसमहः स एवान्धकारस्तिमिर यत्र कुटमकायमानानि मुलायमानानि यानि कोमकालिकमलसहस्राणि मुटुला लिसरसिजसहस्राणि तैः करम्वितं व्याप्तम् अम्मरतलं नमस्तलम् आकोकयन् पश्यन् , 'जय जय' इति तारतरं गभीरं यथा स्यात्तथा उद्गायतः उच्चैः स्वरेण गायती वन्दियन्दस्य चारगसमूहस्य अमन्ददुन्दुमीनां विशालानकानां गम्भीर- १५ निषेण समुच्चतरशदनानुयात मनुगतम् भायतशत यानेन वाघशाशब्देन मिश्र मिलित प्रहसानों नाडितानां मर्दलानां वादिनविशेषाणां स्निग्धनिदिन स्निग्धशमेन मांसलं पुष्टम्, काम्यतालानां कांस्यनिर्मिनझलरीणां रवेण श-देन संकलं व्याप्तम् आलोकशब्दं जपजयध्वनिम् अकर्ण यन् शण्वन् , आलोल. कर्णपळवेषु धवलकर्णकिसलयेष्वालम्बिनचामरझलारा बालन्यजनसमूहा यस्यास्ताम्, अमलेन निर्मलेन कार्तस्वरेण स्वर्णेन कल्पिता रचिता येऽलंकारास्तैः कान्तां मनोहराम् चारकोमल मनोहरमृदुलं पुष्कर- २० मनं यस्य सयाभूतः करः शुण्डा यस्यास्ताम् 'पुष्करं करिहस्ताने दाद्यभाण्डमुग्वे जले' इत्यमरः, ससंभ्रम सत्वरम् माधोरणेन हस्तिरकेन सगुपीतां समुपस्थापितां साक्षात् मूर्तिमी शरीरधारिणी जयलक्ष्मीमिव विजयश्यिमिव, जयलक्ष्मी नाम तन्नामधती करेणुका हस्तिनीम् आरुह्य अधिष्टाय हस्तूल मिव मृदुहुए कण शिखर सम्बन्धी कर्णाभरणों की उत्कृष्ट कलिकाओंसे पुनरुक्त फूलोंके उपहारसे सुशोभित सभामण्डपसे उठकर तथा वहाँसे निकलकर जब प्रणामकी लीलामें सोत्कण्ठ २१ राजाओंके चूड़ामपिपयों की किरणोंका समूह रूपी वाल आतप उन्मिपित होकर फैल रहा था तब सम्भ्रम पूर्वक झुकाये हुए मुकुटोंसे च्युत्त सेहरे के फूलोंपर झूमनेवाले भ्रमर समूह रूपी अन्धकारसे युक्त एवं बोडियोंके समान आचरण करनेवाली कोमल अंजली रूपो हजारों कमलोंसे व्यान आकाझको देखते हुए, 'जय-जय इस प्रकार जोरसे गाते हुए बन्दीजनों के बहुत भारी भेरोके गम्भीर शब्दसे अनुगत, बहुत दूर तक फैलनेवाली शंखध्वनिसे मिश्रित ३० ताडित मर्दल नामक यादित्रके स्निग्ध शब्दसे परिपुष्ट, और कांसेको झाँझोंके शब्दसे आकुल आलोकनाद-जय जयकार नादको सुनते हुए, जिसके चपखल कर्ण पल्लबों में छोटे-छोटे चामरोंका समूह लगा हुआ था, जो निर्मल स्वर्णसे निर्मित अलंकारोंसे अलंकृत थी, जिसकी शुण्ड सुन्दर एवं कोमल अग्रभागसे सहित, थी, जो सम्भ्रमपूर्वक महावसके द्वारा लायी गयी थी और साक्षात् मूर्निमती लक्ष्मीके समान जान पड़ती थी ऐसी जयलक्ष्मी नामक हस्तिनोपर ३५ आरूढ़ होकर राजमागमें प्रविष्ट हुए। उस समय वे हंसतृलस कोमल चौनएट की तकियांसे १. म संभ्रममावजित। २. का तारतारम् । गानोरं यथा तथा, इति टि । ३. क. ग० गभीरम् । - - --- ४८

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