Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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-राज्याभिषेकवृत्तान्तः]
दशमो लम्मः वारिशोकरविसरैरिव विच्छुरितम्, विसृमरपर्याप्तधूपस्तूपधूमनिष्पन्नधूमयोनिपरस्परसंघट्टविघटितअठरान्तर्मुक्तमुक्ताफलकान्तिमातेनेव वीनं वियद्विदधान: पारिषद्य चक्षुराह्लादभाभारेण परोतः शुक्त रा कृतज्ञप्रानहरः कृतज्ञचरः सुदर्शननामा देवः सादरमन्तरिक्षादवारुक्षत् ।
२५३. अभ्यषिञ्चच्च तदभिषेकाधिकृतरमा सपरितोषं निजपरिवारामरपरम्परानीतया पगाखिलतार्थाम्बुपुरपूरितया परिसरप्रत्युप्तपद्मरागप्रभा जालमटिलकिरालयापाडया महनीय- ५ रत्नमहापधिवीज समवासमग्रमङ्गलशालिकट्या शातकुम्भकुम्भपरिपाट्या भगवन्तमिव मन्दरगिरिमस्तकनिविष्टं विष्टरश्नवा हरिविष्टर विराजिनं जोवंधरमहाराजम् । इन्त्र पोरन दलक्षितमिव शुक्लीकृत मित्र, कालिका असमयोद्भूता | तुरावारिशीकरा: प्रालेयरसलिस.. कणास्तेषां विसरः समूह विच्छुरितमिव व्याप्तभिव, विनमरा विसरणशोलाः पर्यापारा ये पस्तूपा धूपघटास्तेषां धूमन निष्पन्ना उत्पादिता ये धूमयो नयो घनाम्नेषो परस्पासंबन विघटितं विदारितं यजठरं १० मध्यं तस्यान्तमध्यान् मुमान पतितानि यामि भुक्तान मीक्षितकानि सेवा कान्तीनां वातेन समूहेनेव वीधं शुक्लं वियद्गगनं विदधानः कुर्याग: 'धन जीमूत मुदिरजमुमोनमः' इत्यारः, पारिषद्यानां सदस्य देवानांनुपां नयनानामालादो यस्मात्तथाभूनी यी भाभार: कान्तिसमूहरन परीनो व्यारतः कृतज्ञानां कृतमुपकार जानता प्राप्रहरः श्रेष्ठः भूनपूर्वः कृतज्ञः कुकुर इति कृतज्ञ चरः सुदशननामा देवोऽमरः सादर यथा स्यात्तथा अन्तरिक्षा व्योम्नः अवारुक्षत् अवततार ।।
६२.५३, अभ्यपिञ्चच्चेति-तस्याभिषेकेऽधिकृतास्तैस्तत्स्नपनाधिकारिभिः ॐ मा साकं सपरित्तोपं परितोषयुतं यथा स्यात्तथा निजपरिवासमराणां स्वकुटुम्बनिलिमानां परम्परया पडक्या आनीना तया, परायः श्रेष्ठा येऽखिस्तीर्था निसिलपवित्रक्षेत्राणि तेषामम्बुपुरेण जलप्रवाह न पूस्तिा संभृता तयां, परिसर तटे प्रत्युप्तानां खचितानां पद्मरागाणां लोहिताभमणीनां प्रमाजालेन कान्तिकलापेन अटिलो व्याप्तः किसलयापीडः पल्लवसमहो यस्थास्तया महनीयरत्ने देदीप्यमानमणिभिः महौषधिभिः बीजसमवायेन २० बीजसमहन, समग्रमङ्गलैश्च निखिलमजल द्रव्यैश्च शालिनी शामिनी कटिमध्यभागो यस्यास्तया शात कुम्भस्य भर्मण: कुम्मानां घटानां परिपाट्या पडत्या मन्दरगिरेः सुमेरोमस्तके शिखरे निविष्ठं स्थितं भगवन्तं तीर्थङ्करं विष्टरश्रवा इव शक्र इव,हरिविष्टरे सिंहासने विरामते शोभत इत्येवंशील जीवंधरमहाराजम् अभ्यपिचरच स्नपयामास घ। बर्फ युक्त जलके छीटोंके समूहसे व्याप्तके समान, अथवा फैलनेवाले अत्यधिक धूप स्तूपोंके २५ धूमसे निष्पन्ग अग्नियोंके परस्पर के संघट्टसे विघटित होकर बीच में छूटे हुए. मातियोंकी कान्तिके समूहसे ही मानो सफेद कर रहा था, सभासदोंके नेत्रोंको आनन्द देनेवाली प्रभाके समूहसे व्याप्त था, और कृतज्ञों--कृत उपकारके माननेवालों में प्रधान था, ऐसा कुत्ताका जीव सुदर्शन नामका देव बड़े आदरसे आकाश से नीचे उतरा।
६२५३. और उसने उनके अभिषेक कार्य में अधिकारी लोगों के साथ बहुत भारी ३० सन्तोपसे, अपने परिवार के देवों की परम्परासे लाये हुए, उत्तमोत्तम समन्त तीर्थों के जलसे भरे हुए समीपसें लगे पद्मराग मणियोंके प्रभाजालसे उगाप्त किसलयों के समूहसे युक्त, श्लाघनीय रत्न रूपी महौषधिके बीजकी प्राप्ति करानेवाले समय मंगलोंसे सुशोभित कटिभागसे गुक्त स्वर्णमय कलशोंके समूहसे सिंहासन पर विराजमान जीवन्धरमहाराजका उस तरह अभिषेक किया जिस तरह कि इन्द्र सुमेरु पर्वतके मस्तकपर स्थित जिनेन्द्र भगवानका ३५ करता है। - १. बीभ तु विमलार्थकम् इति टि० । २. क.. समाबाप ।

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