Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 454
________________ ४१६ गधचिन्तामणिः [ २८ मुनेः - मुत्पततः पततश्च नारकान्पातकाः परे पवनपथ एव मननक्षणनिष्पनिस्त्रिशेरंशतः कदलीदण्डानिव खण्डयन्ति । ताइव परे परस्परं च । कथंचिदवनी चेत्संचरेयुरमी संजातभोकरदंष्ट्राङकुरैविक्रियागतशरारुचकरूपैः परैश्चय॑न्ते । तच्चर्वणभयेन पलायमानास्ते सर्वप्रदेशसुलभाभिरय: सूचिभिः प्रोताज्रयः कुरङ्गा इव सकीलवागुरां गताः परिस्चलनेन पतित्या तास्वेद दारुणं ५ क्रोशन्ति । कोशरभरात्रिवृततरास्यान्विधाय केचिन् 'मूढ, त्वया पुरा खादितं मुदा मांसदण्डमेला' इलि तप्तताम्रपिण्डं बलेन खादयन्ति । परे तु परदारेष्यति कनस्तानमयतप्ततालभरिकाम् 'तब ग्रिगानेयम्' इति हादतिगाढमालिङ्गयन्ति । बद्धमन्यवः केचिदन्ये पूर्वमन्यायादस्मन्नो प्रतीकारचिन्हा प्रतीकाराभावात अनारतं निरन्तरम् उत्पतनः समुलतः पततश्च नारायामश्च नारकान नरः भवा नारका तान् पासका माः परे पुरातननारकाः पवनपथ एव गगन एर मननस्थ क्षणे निणन्नर्मनन- १. शानिधन्नैः संकल्पापसरनिमितः निस्विंशः कृपाणः कदलीदण्डानिव रम्भादण्डानिय वाडयन शकलयन्ति । तांश्च नारकान पर नारकाः खपडयन्न । परस्परं च मि ५३६ खण्डयन्ति । कथंचित् केनापि प्रकारेण भवनों पृथियां चेन् अनी नारकाः संधयुविहरेयुस्तहिं संजासाः समुत्पन भीकरा भय करा दंष्ट्रारा दंष्ट्रा प्रसंहा येपातः विक्रियागत विकिपाशप्तं यत् शाराह खण्डनशीलं चक्रं तद्वदपं येषां तैः परैरन्यारकैचय॑न्ने दस्तैदीयो । तेषां चर्यणस्य मयं तेन तचर्वणमयेन पलायमाना धावमानाः ते सर्वप्रदेशसुलभाभिः निखि स्थान प्राप्यामि । अयःसूविभिलोहसूचिभिः प्रोताङ्नयः खचितपादाः सकीलबागुगं सशायजालं गताः कुरङ्गा इब हरिणा इन परिस्खलनेन पतित्वा तास्वे वायनीपु दारुणं कठिनं यथा स्यात्तथा कोशन्ति दधि। क्रो शरमसेन रोनासोर पितरमास्यं मुखं येषां तथाभूतान् विधान कृत्वा दे चित् मारका: 'मृढ ! अरे मूर्ख! स्वया पुरा पूर्वजन्मनि मुदा हर्षेग खादितं भक्षितम् एतत् मांस खाई पिशित उम्' इति निगद्येति शेषः तत ताम्रपिई संतप्तताम्राकन्ध बलेन प्रसह्य स्वादयन्ति भक्षयन्ति । परे तु अन्ये तु प्रवला नारकाः २० परदारेषु १२स्त्रीपु अतिकम्रान् अत्यासमान ताम्रमयी या तप्तसाल मञ्जिका पुत्तलिका ताम 'इयं तब प्रियागना प्रियवल्लभाइ त निगोति शेषः हठात्रसभम् प्रतिगाई यथा स्यातथा आलिमपन्ति प्राइलेपयन्ति । बहो तो मन्युः क्रोधो यैस्तथाभूताः केचित् अन्य नारका पूर्व प्राग्जन्मनि अस्मत्तो मत्तोऽन्यायात वित्तमत्तेन निरन्तर कार उछलते तथा नीचे गिरते हैं ऐसे उन नारकियों को दूसरे पापी जीव आकाश में ही इच्छा करते ही निर्मित शत्रोंसे कदलीदण्डके समान खण्ड-खण्ड कर डालते हैं। उन २५ खण्ड-खण्ड़ करनेवालों को दूसरे नारको खण्ड-खण्ड कर देते हैं और परस्पर भी एक-दूसरेको खण्ड-खण्ड कर देते हैं । यदि ये ना की किसी तरह पृथिवीपर संचार करने में समर्थ हो पाते हैं तो भयंकर डाँढोंके अंकुरोंको धारण करनेवाले विक्रियासे आगत हिनक जीवांका समूह उन्हें चवा डालता है । उनके चबाये जाने के भयसे वे भागते हैं तो समाल स्थानों में सुलभ लोहेकी कोलियोंसे उ-के पैर छिद जाते हैं जिससे वे कीलसहित जाल में फंसे हुए हरिणांके समान ३० स्खलिन होकर गिर पड़ते हैं और उन्हीं भूमियों में कठोर शब्द करते रहते हैं-चिल्लाते चीखते रहते हैं । चिल्लाहट के वेगसे जिनका मुख अत्यधिक खुल गया था ऐसा उन्हें कर कितने ही लोग 'अरे मूखे ! तूने पहले बड़े हर्षसे यह मांसका टुकड़ा खाया था यह कहकर तपे हुए तामेंका पिण्ड जबर्दस्ती खिलाते हैं। कितने ही लोग पर-स्त्रियों में आसन मनुष्योंको तामें की संतप्त पुतलीका 'यह तुम्हारी स्त्री है' यह कहकर जबर्दस्ती गाढ आलिंगन कराते २५ है। क्रोधको धारण करनेवाले कितने ही लोग तूने पहले धनसे मत्त होकर अन्यायपूर्वक ---. -. १.०ख० 'तर' नास्ति। -

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