Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 428
________________ १० गद्यचिन्तामणिः [२६३ जीबंधरस्य - प्रश्रितः प्राञ्जलि: 'प्रत्यासन्नो मुहूर्तः' इति मौहूतिकाधिकृतः ससंभ्रममब्रवीत् । ३ २६२. तद्वचनमुपश्रुत्य द्रुततरमुच्चलतामिलापतीनां रहसा चलितवक्षोगतकक्ष्यमालाभ्रान्तभृङ्गावलीझंकाररवे मङ्गलशङ्खध्वनाविवोच्चलति, तरसा श्रुट्यत्सूत्रहारमुक्तानिकरे रोहदतिस्फारकरपारागकुट्टिमपातेन वधूवर विधेयहुतबहज्यालोचितलाजविसर्ग इव विभाव्यमाने, ५ जनविमर्दकृतयादच्छिकणिस्तम्भदक्षिणभ्रमणारम्भे दम्पतिविधास्यमानहुताशनप्रादक्षिण्यक्रियां पिशुनयति, हविकीर्यमाणराजाभिमुखप्रसूनाञ्जली सानन्दगोविन्दमहाराजादिविधातव्यवधूवरशरीरचकासदीक्षितारोपणमनुकुर्वति, परिष्करणमय इव परिवहमय इव नृत्तमय इव वादित्रमय । विराजमान शोभमान राजानं भूपाल र उपमृत्य तस्य समीपं गत्वा प्रषेण श्रित: सेवित: सस्कृत इत्यर्थः मौहर्तिकाधिक तः प्रधानदैवज्ञः प्राञ्जलिदहस्तसंपुटः सन् 'मुहूर्तः प्रत्यायनो निकटस्थ' इति संभ्रम १० सत्वरं यथा स्यात्तथा अअर्वात् । ६२९२. तद्वचन मितिः-तस्य मोहतिकाधिकृतस्य वचनं तद्वचनम् उपश्रुत्य समाकण्यं द्रुततर. मतिशीघ्रम् उच्चलताम् इलापतीनां राज्ञा रंहसा वेगेन चकिताः कम्पिता या वक्षोगतवैश्यमाला वक्षःस्थिततिर्यमजस्तास्त्री भ्रान्तानामुत्पतितानां भृङ्गाणां भ्रमराणा प्रावली तस्य झङ्काररवस्तस्मिन् , मङ्गलशङ्खध्वनाविव मङ्गलोद्देश्यकाम्बुशब्द इब उच्चलति, तरसा बलेन ग्रुध्य सूत्राणां भिग्रमानदोरकानां १५ हाराणां मोतियष्टीनां मुक्तानिकरो मौकिकासमूहस्तस्मिन् , रोहन्तः समुपद्यमाना अतिस्फारकरा विशाल किरणा यस्माताभनी परागकतिमा लोहितामयिखाचतवसधाभोगतस्मिन पातेन वधवराम्यां करगीयो यो हुतवहन्यालासु अनलाचि पु उचितो योग्यो लाजविस! मनिधान्यपुष्पाबमोचनं तथाभूत इव विभाव्यमाने प्रत.यमाने, जनविमर्दन नरनि कुरवण कृता घिहिलो पाकिसः स्वेच्छाविहिती यो मणिस्तम्भस्य रत्नस्तम्भस्य दक्षिण-तणारम्भस्तस्मिन् दक्षिगपरिक्रमणारम्भस्तस्मिन् दम्पतिभ्यां जायापतिभ्यां विधास्यमाना करिष्यमाणा या हुताशनस्याग्नेः प्रादक्षिण्यक्रिया तां पिशुनयति सूचयति सति, हर्षेण विकीर्यमाण: प्रक्षिप्यमाणो राजाभिमुखं राज्ञः पुरस्तात् यः प्रसूनाञ्जलिस्तस्मिन् सानन्दः सहगाबिन्दमहाराजादिभिविधातव्यं करणीयं वधूवरयोः शरीस्योश्चकासत् शोममानं यदाक्षितारोपणं संस्कारविशेषस्तमनुकुर्वत्ति परिष्करणमय इव, शोमामय इव, परिवहमय इत्र, उपकरणमय इत्र, नृत्तमय इव, वादिनमय इव, महिषीमय जीवन्धर महाराज के समीप पहुँचकर विनयी तथा हाथ जोड़कर खड़े हुए प्रधान ज्योतिपीने २५ संभ्रमपूर्वक कहा कि 'मुहूर्त निकट है। ६२६२. उसके वचन सुनकर अत्यन्त शीत्र उठनेवाले राजाओंके वन स्थलोंपर स्थिन तिरछी मालाओंसे उड़े भ्रमरसमूहकी झंकारका शब्द जय मंगलमय शंखोंकी ध्वनिके समान उठ रहा था। देगसे जिनका सूत्र टूट गया था ऐसे हारके मोतियों का समूह जब निकलती हुई अत्यधिक किरणांस युक्त पद्मराग मणिके फसपर पड रहा था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो वधू वर के द्वारा अग्निकी चालाओं में योग्य लाई ही छोड़ी जा रही हो। मनुष्योंकी भीड़के द्वारा स्वेच्छाचश किया हुआ मणिमय स्तम्भोंकी प्रदक्षिणा रूप भ्रमणका प्रारम्भ जब दम्पति के द्वारा की जानेवाली अग्निकी प्रदक्षिणा क्रियाको सूचित कर रहा था और जब राजा जीवन्धर के सम्मुख बिखेरी जानेवाली फूलों की अंजलि आनन्दसहित गोविन्द महाराज आदिके द्वारा किये जाने योग्य वधू-वरके सुशोभित एवं आई अक्षत्तोंके आरोपणका १.म. जनसमर्द-1 २. म. वधूवरचक्रासत-1

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