Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 418
________________ गद्य चिन्तामणिः [ २५६ जीवं धरस्य कण्टकनिकरदन्तुरितवपुषः सतिलका वनभुव इव महोधरम्, चारुवन्दनपत्रलताङ्किता मलयमेखला इव दक्षिणजगत्प्राणं वीरश्रीप्राणनाथं प्रमदाः समासदत् । ३५० ५ $ २५६. तासां च सदावलोकन कौतुकविद्वेषे निमेषेऽपि वैरायमाणानाम्, असंजात सर्वाङ्गनेत्रं मनुष्य सर्गं हृदा गर्हमाणानाम्, तादृशभागधेयभाजनमात्मानमपि श्रद्धतीनाम्, तस्यैव वदने निलीनामित्र केशहस्ते निविडितामिव ललाटे कीर्णामिव कर्णद्वये कोलितामिव लोचनयोभ्रन्तिमिव अगे लिखिताभित्र कपोलयोः सक्तामिव नासिकायां प्रतिष्ठितामिवोष्ठयोश्चुम्बितामिव चिबुके कन्दलितामित्र गये मांसलामिवांसयोनिभृतामिव बाह्वोनिक्षिप्तामिव वक्षस्याश्रितामिव बनयो महीधरमिव पर्वतमिव वनभूरक्षे कण्टकनिकरण शल्यसमूहेन दन्तुरितं व्याप्तं वयुर्येषां तःः सतिलकाः क्षुरकक्षसहिताः महीधरमिव राजानमित्र पक्षे पर्वतमिव चारुचन्दनस्य प्रशस्तपाटीरस्य पत्रलताभिः १० पत्रोपशितलता कृतिभिरङ्कितात्रिह्निताः पक्षे चारुवन्दमानां मनोहरमलयज्ञानां पत्रलताभिर्दवल्लीभिरङ्गिताः मलय मेखा व दक्षिणं च राज्जगच्चेति दक्षिणजगत् सरलसंसारस्य प्राणं प्राणरूपं पक्ष दक्षिणश्चासौ जगत्प्राणश्व वायुश्चेति दक्षिणजगरनाणं वीरत्रियाः प्राणनाथस्तं वीरलक्ष्मीवल्लभं जीवंधर समासदत् लेभिरे । ६ २५१ तासां चेति--तालांच पूर्वोनच सदावलोकनस्य शश्वदर्शनस्य कौतुकं कुतूह १५ विद्वेषो विरोधो यस्य तथाभूते निमिषेऽपि पक्षपातेऽपि वैरायन्त इति वैरायमाणास्तासां कृतवैराणाम्, असंजातानि नोत्वानि सर्वाङ्गि नेत्राणि यस्य तथाभूतं मनुष्यसगं नरसृष्टिं हृदा चेतसा गहमागा तां निन्दन्तीनाम् । तादृशं लब्धजीवंबरदर्शनं यद् मागधेयं भाग्यं तस्य भाजनं पात्रम् आत्मानमपि स्वमपि श्रवतीनां प्रत्ययं कुर्वाणानाम्, तस्यैत्र जीवंवरस्यैव वदने मुखे निलीनामित्रान्तर्हितामित्र, केशहस्ते केशपाशे निविडतामित्र सान्द्रीभूतामित्र ललाटे निटिले कीर्णामि विक्षितामिव कर्णद्वये श्रवणयुगे २० कीलितामिव निखाताभित्र लोचनयोर्भ्रान्तामिव प्राप्तभ्रमणामित्र, भ्रूयुगे किखितामित्र, कपोहयो मंण्डयोः सक्ताभिव लग्नामित्र, नासिकायां घ्राणे प्रतिष्ठितानिव प्राप्तप्रतिष्ठामित्र, ओष्ठयो रदनच्छद योचुम्बितामिव चिकेनुप्रदेशे कन्दलितामिव गले कण्ठे मांसलामिय युष्टामित्र, शंसयोः रुपयोनिभृतामिव निश्चलामिव, बाह्वोर्भुजयानिक्षिप्तां न्यस्तामित्र वक्षसि आश्रितामिवालस्त्रितामिव पार्श्वयोः पार्श्वप्रदेश यांनिंबद्धाभिव २५ किसी पर्वत के समीप जाती हुई वनकी भूमियोंके समान जान पड़ती थीं और जो सुन्दर चन्दनसे निर्मित पत्रलताओंसे अंकित थीं इसलिये ऐसी जान पड़ती थीं मानो दक्षिण समीरमलय समीरके सम्मुख जाती हुई मलय पर्वतकी मेखलाएँ ही हों- ऐसी स्त्रियाँ वीर लक्ष्मीके प्राणनाथ जीवन्धर स्वामीको प्राप्त हुई। ३० ६ २५६. जो सदा देखनेके कौतुकमे द्वेष रखनेवाले टिमकार में भी वैर प्रकट कर रही थीं, जो समस्त अंगों में नेत्रों की उत्पत्तिसे रहित मनुष्य सृष्टिकी हृदयसे निन्दा कर रही थीं, जो उन जैसे भाग्यके पात्र स्वरूप अपने आपके प्रति भी श्रद्धा प्रकट कर रही थीं और जो उसी चित्तवृत्तिको धारण कर रही थीं कि जो उन्हीं के मुखमें मानो विलीन थीं, केशपाशमें मानो सान्द्र थीं, ललाट में मानो बिखरी थीं, दोनों कानों में मानो कीलित थीं, नेत्रों में मानो भ्रान्त थीं, दोनों भौंहों में मानो लिखित थीं, गालों में मानो लगी हुई थीं, नाकमें मानो प्रतिष्ठित थीं, ओठों में मानो चुम्बित थीं, गुड्डी में मानो कन्दलित थीं, गलेमें सानो परिपुष्ट थीं, कन्धों में मानो स्थिर थी, भुजाओं में मानों निक्षिप्त थी, वक्षस्थल में मानो आश्रित थी, पसलियों में मानो दिबद्ध

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