Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 408
________________ गधचिन्तामणिः [ २४९ युद्धसत्यापयन्निव सत्यंधरमहाराजतनयाभिमुखमभीयाय । अवदच्चायमकिंचित्करः किञ्चिन्यञ्चन्मनाः 'कुमार कुरुवंशशिखामणे, प्रणतराजचूडामणिकिरणशोणनखमणिचरणो रावणोऽपि रणे मरणमीयिवानायु विरामे रामेण । किं पुनरपरः। तदयं मया वध्यो वध्योऽहम नेनेति बुद्धि भन्तो न विबुध्यन्ते । किमर्थं मामविवेकमधिकमधिक्षिपसि ।' इति । 'प्रतारणपरमेतदणकनरेन्द्र५ स्याकर्ण्य कस्यचिद्भाषणं किमभेषी: ।' इति प्रत्यभाषत प्रतिभाप्रकाशिततन्मनीषितः स मनीपी। पुन रनपीचच गत्यन्तरमत्यन्तरोषहुतबहावयचःश्नवणेन 'किवणिवपुत्र, कि दाङ्मात्रेण । विजयस्तु विधिवशतः। तत्र शत्रितसमागमे चक्षुषी चेन्मम त्रासजुषी स्यातां तदा परुषा स्यान्ममेयमाहोसन्यं धरमहाराजस्य तनयः पुत्रो जीबंधरस्तस्याभिमुखं सन्मुखम् अभीयाय अगिजगाम । किशिदीपद न्य चन्नी वैभयन्मनी यस्य तथाभूगः अकिञ्चित्करोऽकर्मण्योऽयं काष्ठाकारः अवदश्च कथयामास च-'कुरु. १० वंशस्य शिखामणिस्तसम्युद्धी हे कुरुवंशशिखामगे! प्रणता नम्रीभूना ये राजचूडामणयो महीपति शिक्षा मणयस्तपां किरण रश्मिमिः शोण नत्रमणी चरणौ यस्य तथाभूतो रावणोऽपि रणे समरे भायुको जीवितस्य विरामोऽवसानं तस्मिन् सति रामेण दाशरथिना मरणं मृत्युम् ईयिवान् प्राप्तः किं पुनरोऽन्यः ? तत्तस्मा. दयं मया यध्यो हन्तुं योग्यः, अहम् अनेन वध्य इति बुद्धिमन्तो विवेकज्ञा न विबुध्यन्ते न जानन्ति, किस माग, अधिक दिसम् भाव यथा स्यात्तथा अधिक्षिपसि निन्दसि इति । 'प्रसारणपरं १५ प्रञ्चनापरम् एतत्पूर्वक्तिम् भागकनरेन्द्रस्य निकृष्टनरनाथस्य 'कुपूयकुत्सितावद्यखेटगाणकाः समाः' इत्यमरः भाषणं कथनम् आकण्यं किम् अमैपीः मीतोऽसि' इसि प्रतिभायां प्रकाशितं प्रकटितं तन्मनीषितं काष्टाङ्गाराभिलषितं यस्य तथाभूतः स मनीपी विद्वान् जीवंधरः प्रत्यभाषन । पुनरिति--पुनरनन्तरम् अत्यन्तरोप पत्र हुतदहो बलिस्तस्यावहं धारक यद् वचो वचनं तस्य श्रवणेन समाकर्णनेन 'कुरिसतो वणिगिति किंवणिक् तस्य पुनस्तरसम्वृद्धी बाङमात्रेण वचनमात्रेण क्रिम् । विजयस्तु विधिवशतो देवत्रशाद् भवतीति २० शेषः । तव शझिसमागमे मम चक्षुषी ब्रासमुषी भययुक्त स्यातां मवेतो चेत् सदा मर्मयम् आहोपुरुषिका भी काष्ठांगारको भी शीपच्छेद्य - शिरसे काटने योग्य समझ शत्रुका आह्वान किया। आह्वानके समय ही जिसका अनष्ट-भाग्य अत्यन्त क्षीण हो गया था तथा जो अत्यन्त रोषसे था ऐसा काठांगार क्रोध के वेगसे फड़कते हुए ओष्टपुट से अपने बुलाने के लिए आये हुए यमराज के दूतोंके समान निकटवर्ती मनुष्यों को स्वान्त सन्तोपी-हृदयको सन्तुष्ट करनेवाले २५ (पक्ष में अपने अन्त से सन्तोप उत्पन्न करनेवाले वचनोंसे सान्त्वना देता हुआ, जो बहुत शीघ्र प्राप्त होनेवाले नरकावासमें प्रकट होते हुए अन्धकारके समूह के समान जान पड़ता था ऐसे अपने आपको लेनेके लिए संमुखागत कालमेघ नामक भयंकर हाथीपर आरूढ़ हो सत्यन्धर महाराजके पुत्र जीवन्धर स्वामीके संमुख चला ।) उस समय उसका शरीर क्रोधाग्निसे बढ़ते हुए लाल नेत्रोंकी नी: ज्वालाओंकी छटासे आच्छादित हो रहा था इसलिये वह ऐसा ३० जान पड़ता था मानो अग्निमें अवगाहन कर अपने स्वामिद्रोहके अभावका विश्वास दिलाने के लिए उसकी सत्यता ही दिखला रहा हो। तदनन्तर जो अकिञ्चित्कर था-कुछ कर सकने में असमर्थ था और जिसका मन कुछ-कुछ टूट रहा था ऐसा काष्ठांगार बोला कि हे कुरुवंशके शिस्त्रामगि ! कुमार! नम्रीभूत राजाओंके चूड़ामणिकी किरणोंसे लाल-लाल नख रूपी मणियांसे सुशोभित चरणोंको धारण करनेवाला रावण भी आयु समाप्त होनेपर युद्ध में ३५ रामके द्वारा मृत्युको प्राप्त हो गया था फिर दूसरेकी तो बात ही क्या है ? इसलिए यह मेरे १. क० स० ग० न विबुध्यन्ते, इति । २. अणक:-निकृष्टः, इति टि० । ३. क० स० ग० 'चेन्' नास्ति।

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