Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 373
________________ ३६१ वृत्तान्तः ] नवमो लम्मः पादन्यासादिव स्फुरदधरपल्लवा किंकर्तव्यतामूढासीत् । २२७. ततस्तावता तयोः संगमाहमङ्गलप्रदीप इव प्रज्वलति प्रत्यूषाडम्बरे, स्त्रीपुरुषसंयोगप्रकारप्रकटनायेब घटमाने कोकमिथुने, हुतहुताशनकुण्डायमाने स्फुटितसरोजषण्डमण्डिते सरसि मङ्गलवचनपठनाकुलेष्विव कूजत्सु कोकिलेषु, वंशस्वनानुकारिझंकारमनोहरभृङ्गवन्दपदपातवृन्तच्युतप्रसवराजिमाचारलाजानिव विलासिनीषु विकिरन्तीषु लतासु, तन्मिथुन- ५ मिथ.रांगमपिशुनेष्विव शकुनेषु सविरावेषु, स जीवकस्वामी तादृशीं दशामनुभवन्तीमन्तर्धातुं क्षेपीयः क्षितितलादुत्क्षिप्तकचरणामन्तःकरणेन स्थातुं प्रस्थातुं च प्रतीकेन प्रयतमानां तदाननाम्भोजमतिस्पष्टं द्रष्टुमभिवाञ्छदृष्टियुगं प्रकृष्टतरलज्जया बलादाकर्षन्तोमीषद्विवतितमुखीममर्त्यशीला म्यान्तं चित्तं प्रविशत: कुमारस्य पादन्यासादिव चरणनिक्षेपादिव स्फुरदधरपल्क वा प्रकम्पमानाधरकिसलया सती किंकर्तव्यतायां मूढा निर्विचारेति कितन्यतामा आसीत् । ६२२७. तत इति-ततस्तदनन्तरं तावता तावत्कासन तयोर्जीवकसुरमजयोः संगमाहमङ्गलप्रदीप इव समागमयोग्यमङ्गलदीप इच प्रत्यूषारम्बरे प्रभाताडम्बरे प्रज्वळति सति, स्त्रीपुरुषयोदम्पत्योः संयोगस्य प्रकारो विधिस्तस्य प्रकटनायेव प्रकटीकरणायेव कोकमिथुने चक्रवाकयुगळे घटमाने मिलति सप्ति, स्फुटितान विकसितानां सरोजानां सरसीरहाणां षण्डेन समूहन मण्डितं शोभितं तस्मिन् सरसि कासारे हुतः साकल्यन सतपितो यी हुताशनामिस्तस्य कुण्डायभाने कुण्डवदाचरति सति, कोकिळेषु पिकेषु १५ मङ्गलवचन पठनीय मङ्गलपाठोच्चारणायाकुला ब्यप्रास्तेचिव सरसु, विलासिनीषु वनितासु भाचारकाजानिव लतासु वल्लीपु वंशस्वनानुकारिणा वेणुध्वनिविडम्बना प्रकारेण मनोहरा रमणीया ये भृजा भ्रमरास्तेषां वृन्दस्य समहस्य पदपातेन चरणपातेन वृन्तेभ्यश्च्युताः पतिता ये प्रसवाः पुष्पाणि ते राजि पहिंक विकिरन्तीषु प्रक्षिपन्तीषु सतीपु, शकुनेषु विहङ्गमेषु तन्मिथुनस्य तहम्पत्योः संगमस्य पिशुनाः सूचकास्तथा तेचिव सविराचेषु सशब्देषु सत्सु, स जीव कस्वामी तादृशीं पूर्वोक्तप्रकारां दशामवस्थाम् अनुभवन्तीम् २० भन्तातुं तिरोभवितुं क्षेपीयः शीघ्र क्षितितकाद्भूतलात् उरिक्षक चरणामुस्थापितकपादाम् अन्तःकरणेन स्थातुं प्रतीकेन भङ्गेन च प्रस्थातुं प्रयातुं प्रयतमानां प्रयत्नं कुर्वाणां सदाननाम्भोजं जीवकाननमहजम् अतिस्पष्टं यथा स्यात्तथा द्रष्टुम् अभिवाग्छत् अभिलषद् इष्टियुगं नयनयुगलं प्रकृष्टतरलज्जया प्रभूततरनपथा मानो फड़कते हुए अधरपल्लबसे सहित हो 'क्या करना चाहिए' इसका विचार करने में मूढ़ हो गयी। . २२७. तदनन्तर उतने हीमें उन दोनों के समागम के योग्य मंगलमय दीपकके समान जब सूर्य देदीप्यमान होने लगा, स्त्री और पुरुषों के संयोगकी विधि प्रकट करने के लिए ही मानो चकवा-चकवियोंके युगल परस्पर मिलने लगे। खिले हुए कमलोंके समूहसे सुशोभित सरोवर जब होमी हुई अग्निके कुण्डके समान जान पड़ने लगे, मंगलमय वचनोंके पढ़ने में आकुल के समान जब कोयले शब्द करने लगी, जिस प्रकार स्त्रियाँ पद्धति के अनुसार लाईकी ३० वर्षा करती हैं उसीप्रकार जब लताएँ बाँसुरीके शब्दका अनुकरण करनेवाली झंकारसे मनोहर .." भ्रमर समूह के चरणों के पड़ने के कारण बोंडियोंसे गिरे फूलोंके समूह की वर्षा करने लगी, और उन दोनों के पारस्परिक संयोगको सूचित करते हुएके समान जब पक्षी शब्द करने लगे तत्र जीवन्धरस्वामीने, जो उस प्रकारकी दशाका अनुभव कर रही थी, शीघ्र ही छिपने के लिए जिसने पृथिवीतलसे एक पैर ऊपर उठा रखा था, जो अन्तःकरणसे वहाँ ठहरना चाहती थी ३५ परन्तु शरीर से अन्यत्र जानेका प्रयत्न कर रही थी, जो जीवन्धरस्वामीके मुख कमलको १. म० स्त्रीपुंससंयोगः ।

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