Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 375
________________ दशमो लम्भः २२९. अथायं सुमतिः सुपतिसुतायां सुरमजयाँ सुमनोम जाँ चञ्चरोक इव सक्तो भवनभिनवकरपीड़ना मेडितत्रपाभरदरमुकुलितमस्थाः सुरतदौलालित्य ललितचेष्टि तैविमुकुलीकृत्य क्रमेण तरुणतामरसतर्जनकलाकुशललोचनमुग्धमधुरसंचारसूचितपञ्चशरसमरसंरम्भया तया सह मनसिजमहोमपचेलिमफलानि भवपयोधिमथनजनितसुधारसायमानानि सौभाग्यशशभदाभिरूप्यशारददिनानि श्रवणचातकपारणपयोदजलधारायमाणानि मणितमधुरपरभृतरसित- ५ सुरभिसमयसाम्राज्यानि सरभसकचग्रहव्यतिकरविशेषितरतिविमर्दनानि निर्दयकृताधर ग्रहनित ६२२६. अथायमिति-अथ सुम्मारीपाणिग्रहणानन्तरम् सुमतिः सुत्रुद्धिरयं जीवंधरः सुमतेः कुबेरदत्तभार्यायाः सुता तस्यां सुरमन्जयां पूर्वोकायां सुमनोमजयां षुप्पम जयर्या चचरीक इव भ्रमर इव सक्तो निलीनो भवन् अभिनयकस्पीयनेन नूतनविवाहेनानेडितो द्विगुणितो यस्त्रपामरो लजासमूहस्तेन दरमीषद् यथा स्यात्तथा मुकुलितं कुड्मलितं मन्दीभूतमिति यावत् अस्याः सुरमार्याः सुरतदौलालिस्यं १० संमोगस्यानुफूलाभावस्व ललितचेष्टितैः सुन्दर चेष्टितैविमुकलीकृस्य दूरीकृस्य क्रमेण तरुणातामरसयोः प्रफुल्लकम झयोस्तर्जनकळायां तिरस्करणकलायां कुशले विदग्धे ये लोचने तयोमुग्धमधुरसंचारः सूचितः परस्य प्रद्युम्नस्य समरसंरम्भरणोद्योगो यया तथाभूतया तया सुरमञ्जर्या सह मनसिजमहीरहस्य कामानोकहस्य पचेलिमानि पक्तुमहाणि च तानि फलानि चेति मनसिजमहीरुहपचेलिमफलानि, भव एव पयोधिः भवपयोधिः संसारसागरस्तस्य मथनेन विलोडनेन जनितः समुत्पनो यः सुधारसः पीयूषरसस्तडदाचरन्तीति १५ तथा, सौभाग्यमंत्र शशभृच्चन्द्रस्तस्याभिरूप्याय शारददिनानि शरहतुदिनानि, श्रवणचातकयोः कर्णसारङ्गयोः पारणाय तृतिकरभोजनाय पयोदजलस्य वारिदवारिणो धारा इवाचरन्तीति तथा, मणितं सुरतशब्द ५५ मधुरपरभृतरसित कोकिलकल कूजनं तस्मै सुरभिसमयस्त्र वसन्तसमयस्य साम्राज्यानि, सरमसेन सवेगेन कच. अहव्यतिकरण केशमहन्यापारेण विशेषितं वृद्धिंगतं रतिविमर्दनं सुरतविमर्दन येषु तानि, निर्दयं यथा स्यात्तथा ६२२६. अथानन्तर सुबुद्धिके धारक जीवन्धर कुमार सुमतिकी पुत्री सुरमंजर में उस २० प्रकार आसक्त हो गये जिस प्रकार कि पुष्पमंजरीमें भ्रमर आसक्त होता है। सुरमंजरीका .. संभोग-सुख नूतन विवाह के कारण पुनरुक्त लजाके समूहसे कुड्मलित हो रहा था उसे . जीवन्धर कुमार सुन्दर आलिंगनों से विकसित करते हुए क्रम-क्रमसे तरुण कमलको डाँट दिखानेकी कलामें कुशल नेत्रोंके सुन्दर एवं मधुर संचारसे जिसके कामसम्बन्धी युद्धका प्रारम्भ सूचित हो रहा था ऐसो उस सुरमंजरीके साथ उन संभोग-सुखोंका अनुभव करने २५ लगे कि जो कामरूपी वृक्ष के पकनेके योग्य फल थे, संसाररूपी समुद्रको मथनेसे उत्पन्न अमृत रसके समान आचरण करते थे, सौभाग्यरूपी चन्द्रमाकी सुन्दरताको बढ़ानेके लिए शरद ऋतुके दिन थे, कानरूपी चातक पक्षियोंकी पारगाके लिए मेघकी जलधाराके समान आचरण करते थे, संभोगकालीन शब्दरूपी कोयलके मधुर शब्द के लिए वसन्त ऋतु सम्बन्धी साम्राज्यके समान थे, वेगपूर्वक एक-दूसरेके केश ग्रहणकी क्रियासे जिनमें रतिसम्बन्धी विमर्दन ३० विशेषताको प्राप्त हो रहे थे, निर्दयतापूर्वक अधरोष्ठके ग्रहणसे जिनमें पीड़ा उत्पन्न हो रही थी, १. क.० ख० ग. पाचारदर. । २, अनुबूलाभावत्वम्, इति टि । ३. म वेष्टितः ।

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