Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 391
________________ वृतान्तः ] दशमो लम्मः ३५३ वंतः प्रसरन्त्या त्रिसुमरवित्रिधयोधा' युवाभरणकिरणोल्लसत डिल्लता संचय कञ्चुकितककुभा करटतटनिर्यदमितमदजलधाराप्लावितधरातलद्विरदनीरदनो रन्तिवियदन्तरालया स्थैर्यविजिताखण्डलधनुःकाण्डकोदण्डमण्डलया ताण्डवितशिखण्डिमण्डलमहाध्वानस्त्यानस्तनित सातङ्कभुजङ्गया तुङ्गतुरङ्गबु र शिखर खनन जनितघत्तरपराग पटलपयः शीकर निकरनिविडितनिलिम्पना प्रावृषेत्र प्रेक्ष्यमाणया वाहिन्या वाहिनीपतिरिव प्रलयकालोलः प्रच्छादितपृथ्वीतलः प्रत्यर्थिनिर्मूलनाय ५ हेलया हेमाङ्गदविषयं प्रति वयो ! $ २४१ ततश्च वलक्षतरवारबाणोल्लसत्सौविदल्लबल्लभकरपल्लव कलितवित्रासकवेत्र @ अर्धविरस्य धनसमृहस्य वितरणेन दानेन चरितार्थीकुर्वन् सफलयन् सर्वतः समन्तात् प्रसरन्त्या, विसुमरा विसरणशीला विविधयोधानां नानासैनिकानां य आयुवाभरणकिरणाः शस्त्ररूपालंकारमरीत्र यस्तै हल्लसता तल्लितः संवत विद्युल्लोसमूहेन कबुकिता व्याप्ताः ककुभी दिशो यया तया कस्टलटेभ्यो गण्डस्थल- १० तीरेभ्यो निर्यन्त्यो निर्गच्छन्त्यो या अमितमदजलधारा अपरिमितमदाम्बुप्रवाहास्तामिः प्लावितं घरातलं भूतलं यैस्तथाभूता ये द्विरद्रा हस्तिनस्त एवं नीरदा मेवास्तै नरिन्धित निश्छिद्रीकृतं वियदन्तरालं गगन मध्यं यथा तथा, स्थेर्येण स्थिरत्वेन विजितं पराभूतमाखण्डलस्य शक्रस्य धनुःकाण्डं येन तथाभूतं कोदण्डमण्डलं चापचक्रं यस्यास्तना ताण्डवितं नटितं शिवमण्डलं मयूरमण्डलं येन तथाभूतो यो महाध्वानो महाशब्दस्तस्य स्यानं प्रतिध्वनिः स एव स्तनितं घनगर्जितं तेन सातङ्काः समयकृता भुजङ्गा नागा १५ यथा तथा, तुङ्गा उन्नतर ये तुरङ्गा अश्त्रास्तेषां खुराणां शकानां शिखरेण अग्रभागेत खननं क्षोदनं सेन जनितः समुत्पन्नो यो धनवरपरागपटलः सान्द्रतररजोराशिः स एव पयःशीकरनिकरो जलकणकलापकतेन निविद्धितं व्याप्तं निलिम्सवर गगनं यथा तथा, प्रावृपेव वर्षर्तुनेव प्रेक्ष्यमाणया दृश्यमानया वाहिन्या सेनया प्रलयकाले वेलां तटीमुकान्त इति प्रलय का ओ को वाहिनीपतिरित्र नदीपतिरिव प्रच्छादितं व्याप्तं पृथ्वीतलं येन तथाभूतः सन् प्रत्यर्थिनिर्मूकनाय शत्रुत्पादनाय हेलयानायासेन हेमाङ्गदविषयं काष्टाकारजनपदं प्रति ययौ । ई २४१ वतश्रेति ततश्च तदनन्तरञ्च सैन्ये सेनायां हेमानन्दविषयं तत्रामजनपदं विविशुपि प्रवेष्टुमिच्छुनि सर्वाति सम्बन्धः । अथ सैन्यस्य विशेषणान्याह कम क्षेति वलक्षतैरैरतिशुक्लैरिवाणैः — १. म० श्रौधा । ४५ २० २५ प्रस्थान के अनुरूप अत्यन्त शुभ लग्न में निकलकर मित्रों और छोटे भाईसे सहित जीवन्धर स्वामी के साथ वर्षा ऋतुके समान दिखनेवाली सेनासे प्रलयकाल के उद्वेल समुद्र के समान पृथिवीतलको आच्छादित करते हुए शत्रुका निर्मूल नाश करने के लिए अनायास ही हेमाङ्गद देश की ओर चल पड़े। उस समय उनकी वह सेना फैलनेवाले नानायोधाओंके शस्त्ररूपी आभूषणोंकी किरणोंरूनी चमकती हुई बिजलियों के समूह से दिशाओंको व्याप्त कर रही थी । गण्डस्थलोंसे झरते हुए अपरिमित मदजलकी धारासे पृथिवीतलको डुबोनेवाले हाथीरूपी मेघोंसे उसने आकाशके अन्तरालको व्याप्त कर रखा था । उसके धनुषोंके समूह ने अपनी स्थिरतासे इन्द्रधनुषों दण्डको जीत लिया था । मयूरोके समूहको ताण्डव नृत्य से युक्त करनेवाली महानिरूप बड़ी भारी गर्जनासे उसने साँपोंको भयभीत कर दिया था। और ऊँचे-ऊँचे घोड़ों के खुरोंके शिखर से खुदने के कारण उत्पन्न अत्यन्त सवन परागसमूहरूप जलके छींटों के समूह से उसने आकाशको व्याप्त कर रखा था । ३० ३५ ६ २४१. तदनन्तर अत्यन्त सफेद वारवाणोंसे सुशोभित श्रेष्ठ कंचुकियों के हस्त-पल्लवों में

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