Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 403
________________ ३६५ - वृत्तान्तः ] दशमो लम्भः $ २४७. ततस्तपस्यामिव बलवदुपास्यां दुरन्ततया तु ततो नितान्तगर्हणीयाम्, मोमांसामिव परिहिंसाप्रवण भजनीया मोश्वरापेक्षतया तु ततो विलक्षणाम्, चार्वाकचर्यामिवानपेक्षितात्मनिर्वहृगोयां गुरुद्वेषमूलतया तु ततोऽपि कुत्सनीयामाजिमारचयितुमतीव क्षोदिष्ठे काष्ठाङ्गारे माले, पपचलिए पद्ममुखादिष्वपि युद्धाभिमुखेषु, पिनद्धार्धोरुके सशोषंके च सति सादिनिळे समारोपितधनुषि धन्विनि, धनुर्धरचक्रवर्तिना चक्रव्यूहे परेण च मिल ६ २४७. तत इति - ततस्तदनन्तरम् अतीव नितान्तम् क्षीदिष्ठे क्षुदत काष्ठाङ्गारे तपस्यमित्र तपश्चर्षामित्र वद्भिर्बलिष्ठैः एकत्र क्षुत्तृषाशीतोष्णादिपरिप सहनशक्तैरन्यत्र प्रत्यर्थिपार्थिव निराकरणप्रचण्द्वपराक्रमैर्जनैरुपास्यां सेवनीयां करणीयां, दुरन्ततया तु दुरबमानतया तु ततस्तपस्थातो नितान्त गर्हणीयामतिनिन्दनीयां तपस्या स्त्रन्ता आजिस्तु दुरन्ता ततो व्यतिरेकः, मीमांसामित्र मीमांसादर्शन मित्र परिहिंसायां प्रत्रणैरेकत्र याज्ञिकहिंसायां पक्षे रणाजिरागतशत्रुविधात ते दक्षैमंजनीयां सेवनीयाम् ईश्वरापेक्षया १० ततो मीमांसाया विलक्षणां विभिन्नाम् मीमांसा ईश्वरनिरपेक्षा आजिस्तु ईश्वरसापेक्षा ततो व्यतिरेकः, चार्वाकचर्यामिव भूतवादिप्रवृत्तिमित्र अनपेक्षितात्मभिरनङ्गीकृत जीवास्तित्वैर्निर्वहणीयां समर्थनीयाम् अन्यत्र स्वास्तित्वमुपेक्षमाणैर्जनैनिर्वहणीयां करणीयां गुरुद्वेषमूलतया तु गुरुद्वेषकारणत्वेन ततोऽपि वाकचर्यातोऽपि कुत्सनयां निन्दनीयां चार्वाकचर्या गुरुद्वेषस्य मूलमस्ति आजिस्तु ततो विपरीता वर्ततेऽतएव व्यतिरेकः आजिं युद्धम् आरचयितुं कर्तुं प्रक्रममाणे समुहाने सति पराक्रमशादिपु वीर्यविशोभिषु १५ पद्ममुखादिष्वपि मित्रेषु युद्धाभिमुखेषु रणसंमुखेषु सत्सु सादिनि हयारोजिने पिनद्धमधे रुकमधोवस्त्रं येन तथाभूते शीर्षके सशिरस्त्राणे च सति धन्विनि धनुर्धारिण समारोपितं सप्रायद्धीकृतं धनुर्येन तथाभूते सति धनुर्वर चक्रवर्तिना धानुष्कशिरोमणिना चक्रव्यूहे, तन्नामव्यूहे परंग चेतरेण च पद्मव्यूहे $ २४७. तदनन्तर जो तपस्या के समान बलवान् मनुष्योंके द्वारा उपासनीय था परन्तु खोटा परिणाम होने के कारण उससे अत्यन्त निन्दनीय था । मीमांसा के समान हिंसा में २० निपुण मनुष्यों के द्वारा सेवनीय था परन्तु ईश्वरकी अपेक्षा रखनेके कारण उससे विलक्षण था और चार्वाकको चर्या के समान आत्माकी अपेक्षा न रखनेवाले लोगों के द्वारा निर्वाह करने के योग्य था परन्तु गुरुद्वेषका कारण होनेसे उससे भी निन्दनीय था ऐसे युद्धको करनेके लिए जब क्षुद्र काष्ठांगार तैयार हो गया। पराक्रमसे सुशोभित पद्ममुख आदि मित्र भी युद्धके सम्मुख हो गये, जब घुड़सवार और महावत लोग अधोवस्त्र पहनकर तथा शिर- २५ पर टोप लगाकर तैयार हो गये, जब धनुर्धारी लोग धनुष तानकर खड़े हो गये, जब धनुर्धारियोंके चक्रवर्ती एवं चक्रयूहकी रचना करने में तत्पर जीवन्धरकुमार के द्वारा १म० निपादिनि च' इत्यधिकः पाठः । २. म० चक्रव्यूह परेण च । २. जिस प्रकार तपस्या बलवान् मनुष्यों द्वारा सेवनीय होती है उसी प्रकार युद्ध भी बलवान् मनुष्यों द्वारा सेवनीय होता है परन्तु तपस्याका परिणाम अच्छा होता है और युद्धका परिणाम अच्छा ३० नहीं होता अतः उससे अत्यन्त निन्दनीय है । जिस प्रकार मीमांसा याज्ञिक हिंसा में निपुण मनुष्योंके द्वारा सेवनीय है उसी प्रकार युद्ध भी हिंसानिरत मनुष्योंके द्वारा सेवनीय है परन्तु मीमांसा में ईश्वर ( जगत्कर्त्ता ) की अपेक्षा नहीं रहती हैं जब कि युद्धमें ईश्वर ( राजा ) को अपेक्षा रहती है अतः उससे विलक्षण है। जिस प्रकार चार्वाक मतकी चर्या अनपेक्षितात्म जनों ( अनात्मवादियों के द्वारा ) निर्वहणीय होती है उसी प्रकार युद्ध भी अनपेक्षितात्म ( अपने जीवनकी परवाह न रखनेवाले) लोगों के द्वारा निर्वहणीय होता है परन्तु ३५ चार्वाक मतकी च गुरुद्वेप ( गुरुके साथ द्वेप ) रखनेका कारण नहीं है जब कि युद्ध गुरुद्वेप ( बहुत भारी द्वेष ) मूलक होता है अतः उससे निन्दनीय है ।

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