Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 404
________________ ३५. गचिन्तामणिः [ २५७-२४८ युद्धपद्मव्यूहे कृते, चक्रशोभितशताङ्गनक्रभृति तुरंगतरङ्गिणि मातङ्गपोताङ्किते पादातपयसि परस्परस्पर्धोद्यतपारावारद्वय इव पक्षद्वये लक्ष्यमाणे पटहध्वनेरपि ज्याघातरवे पांसुपटलादपि पत्रिणि गभस्तिमालिगभस्तेरप्यु दस्तास्त्ररश्मिनिकरे रणरागादपि रखतीचे प्रतिसमयं प्रकृष्यमाणे, धानु. कैर्धानुष्का निषादिभिनिषादिनः सादिभिः सादिनः स्यन्दनारोहै: स्यन्दनारोहा युयुधिरें। २४८. तावता धरणी धरणोपतिमरणभीत्या रणनिवारणायेव रेणुपटलापदेशन परस्परदर्शनं परिजहार । मिथोदर्शनापेक्षिणोवाक्षौहिणो तत्क्षण एव शिलो मुखमुखंविघटितविशङ्कटवक्षःकवादविगलदविरलरुधिरधारया धरातलोद्यत्तरागपरम्परामाचचाम। ततः साक्षाल्लक्ष्य - तन्नामव्यूह कृते सति, चक्रशामिनः शताजा एवं स्यन्दमा एवं नका जलजन्तुधिशेरास्तान् विभतीति चक्रशोमिशताङ्गनकभूत तस्मिन : तुरडा व तरङ्गास्तुगताङ्गास्ते विद्यन्ते यस्मिस्तस्मिन् हयतरङ्गयुक्के, १० माता गजा एवं पे तास्तरणयस्तैरजिते चिह्निते, पनातीनां समूहः पादातं तदेव एयो जलं. यस्मिंस्तस्मिन् परस्परस्पर्धायामन्योन्यासूयाय मुग्रतं तत्परं यत्पारावारद्धयं सागरद्वयं तस्मिन्निव पक्षद्वय लक्ष्यमाणे दृश्यमाणे, पटहध्वनेरपि तुझानादादपि ज्याघातरवे प्रयाघात शब्दे, पांसुपरलादपि धूलिसमूहादपि पत्रिणि वागे, गभस्तिमालिगमस्तैरपि दिनकरकरादपि टदस्तानामस्त्राणां रश्मिनिकरः किरणसमूहस्तस्मिन् , रणरागादपि समरानुरागादपि रफौधे रुधिरप्रवाहे प्रतिसमयं प्रतिक्षणं प्रकृप्यमाणे सति, धनुःप्रहरणं १५ येषां ते धानुष्का धानुकैः सह, निषादिनो हत्यारोहा निशदिभिहत्यारोहः सह 'आधोरणा हस्तिपका हस्त्यारोहा निषादिनः' इत्यमरः, सादिनोऽश्वारोहा: सादिभिरश्वारोहैः सह 'अश्यारंहास्नु सादिनः' इत्यमरः, स्यन्दनारोहा रथिनः स्यन्दनारोहै रथिभिः सह 'रथिनः स्यन्दनारोहा.' इत्यमरः युयुधिरे युद्धं चक्रुः । F.. तावतेति- तावत्ता ताबकालेन धरणी भूमिः धरणीपतीनां राज्ञां मरणस्य भौतिस्तया २. रणनिवारणायेव समरनिरोधायव रेणुपटलापदेशेन धूलिपटलम्याजेन परस्सरदर्शनमन्योऽन्यावलोकन परिजहार निरुरोध । मिथोदर्शनं परस्परावलोकनमपेक्षत इत्येवंशीला तथाभूतव अक्षौहिणी सेना तरक्षण एव तरकाक एव शिलीमुखानां बाणानां मुखेनाप्रभागेन विघटिता,खण्डिता ये विशवक्षःकवाटा विशालार:स्थलबाटास्तेभ्यो विगळती निःसरन्ती या अविरका निरन्तरा रुधिरधारा रक्तप्रवाहस्तया धरातलास्पृथिवीतादुघन्ती या परागपरम्पस रजःसन्ततिस्ताम् भाचचाम आनन्सां चकार । ततो धूलिपटला २५ पद्मव्यूह की रचना की गयी, और चक्र से सुशोभित रथरूर नाकाको धारण करनेवाले, तुरंगरूपी तरंगोंसे युक्त, हाश्रीरूपी जहाजोंसे सहित और पैदल सैनिकरूपी जलसे भरे परस्परकी स्पर्धा में उद्यत दो समुद्रोंके समान जय दोनों पक्ष दिखाई देने लगे, अब डोरीके आघात का शब्द भेरी के शब्दसे, वाण धूलि के समूहसं. ऊपर उठाये हुए अस्त्रांको किरणोंका समूह सूर्यकी किरणोंसे और रक्तका समूह रणके रागसे भी अधिक प्रति समय प्रकर्षताको ३० प्राप्त होने लगा, तब धनुर्धारी धनुर्धारियोंके साथ, महावत महाधनों के साथ, घुड़सवार घुड़सवारोंके साथ और रथोंके सवार रथोंके सवारोंके साथ युद्ध करने लगे। ६२४८. उस समय पृथिवीने राजाके गरण के भयसे रण रोकने के लिए ही मानो धूलिपटल के बहाने परस्परके दर्शनको छोड़ दिया। परस्परके अवलोकनको अपेक्षा रखती सेना हुईके समान (प्रथिवीने उसी क्षण बाणों के अग्रभागसे विघटित विशाल वक्षःस्थलरूपी कपाटसे ३५ झरती हुई खूनको अविरल धागसे पृथिवीतलसे उठती हुई धूलिकी परम्पराको आचान्त कर १. क. ग. 'मुग्न' नास्ति ।

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