Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 400
________________ गद्यचिन्तामणिः [ २४५ गोविन्दसुताया: रस्तु कुञ्जर इव पञ्चाननम् प्रतिवादीब स्याद्वा दिवावदूकम्, अधमणं इवोत्तमर्णम्, तस्कर इवारक्षकम् सहसा ससाध्वसमवलोकयन्नेन मतितरामभैषीत् । आरब्ध चायमचिरभाविनिरयनिरीक्षणोन्मुख इवाधोमुखः सुतरां हतचित्तश्चिन्तयितुम् 'मथनः कथमेनमपधीरवधीत् । साधु साधितं स्यात्स्याला मेन बाढमेतत् । किमिति विश्वस्तो मयै विश्वासघाती । किमिति न ५ मया वा पुरस्तादेव निरस्तासुः कृतः क्षात्रोचितचरितोऽयं वणिक्पुत्र:' इति । ३६२ $ २४५. तावता समुपेत्य चतुरपुरःसरसमुत्सारितसमालोकनलम्पटजनसंबाधः स्तम्बेरमेन्द्रान्मृगेन्द्र इव सानुमतः सानोः सानुजः सानन्दमत्रप्लुत्य सलोलपारूढवन्त्रचकस्त्रिविक्रम इवाकपत्रिहितज्यारोपणशरसंधानरारक्षेत्रः क्षोभवन्त्ररिहृदयमाशु केनचिदाशुगेन शरव्यं विव्याध । लक्ष्यस्य शरव्यस्य भेदे दक्षः समर्थोऽयमेव' इति निरणैषुः निर्णीतवन्तः । काष्टाङ्गारस्तु पञ्चामनं सिंहम् १० अवलोकन कुअर व करीब, स्याद्वादिवाददूकं पश्यन् प्रतिवादी उत्तमर्ण स्वामिनं पश्यन् अधमर्ण इव ऋणग्राहीत्र, आरक्षकं राजपुरुषं पश्यन् तस्कर इव चोर इव सहसाऽकस्मात् एवं जीवंबरम् ससाध्वसं समयम् अवलोकयन् अतितरां नितान्त्रम् अभैषीत् भीतोऽभूत् आरब्ध चायं तत्परश्चाभूत् अयं काष्टाङ्गारः अविरमावि शीघ्रमावि यन्निरयं नरकं तस्य निरीक्षणोन्मुख इव दर्शनोक इवाभमुखो नीचैर्चे इनः सुतरामत्यन्तं चित्तं यस्य तथाभूतः सन् चिन्तयितुं विवारयितुम् -'अपबीद्धिः मथनः एनं कथम् १५ अवधीत् जवान, स्याकाधमेन नीचैः स्याळेन बाढमेतत् कार्यं साधुपाधितं स्यात् विपरीतकक्षणैषा । एवं विश्वासघाती स मया किमिति विश्वस्तः प्रतीतः १ किमिति न मया वा पक्षान्तरे क्षात्रोचितं चरित्रं यस्य तथाभूतोऽयं वणिक्पुत्रः पुरस्तादेव स्त्रसंमुखमेव निरस्ता निर्गता असवः प्राणा यस्य तथाभूतो निष्प्राणो न कृती न विहितः' इति । ई २४५. तावतेति तावता सावरका केन समुपेत्य समागत्य चतुरा विदग्धा ये पुरःसरा अग्रेग़ामिनो २० जनास्तैः समुरसारित दूरीकृतः समालोकनलम्पटजनानां दर्शनोत्सुकलोकानां संबाधो विमर्दो अस्त्र तथाभूतः स्तम्बेरमाद् गजेन्द्रात् सानुमतः पर्वतस्य सानो प्रस्थात् मृगेन्द्र इव सिंह इव सानुजः सनन्दाढ्यः सानन्दं यथा स्यात्तथा अवप्लुत्य समुत्पत्य सलीकम् आरूढं यन्त्रचक्रं येन तथाभूतः त्रिविक्रम इव नारायण दूष क्रमेण युगपद् विहिताः कृता ज्यारोपणशरसंधानशरक्षेपण मौन्यरोपणवाणधारण नियमसे लक्ष्य के भेदने में समर्थ हैं । राजाओंकी यह दशा रही परन्तु काष्टांगार, सिंहको २५ देखकर हाथी के समान, स्याद्वादी शास्त्रार्थीको देखकर प्रतिवादी समान, साहुकार को देखकर कर्जदार के समान और पहरेदारको देखकर चोरके समान सहसा भयपूर्वक जोवन्धरस्वामीको देखता हुआ अत्यन्त भयभीत हो उठा। जिसका चित्त बिलकुल मर चुका था ऐसा काष्ठागार शीघ्र ही प्राप्त होनेवाले नरकको देखने के लिए उन्मुख हुएके समान नीचे की ओर मुख कर इस प्रकार विचार करने लगा कि 'क्या दुर्बुद्धि मथनने इसे मारा था ? जान पड़ता ३० है उस नीच सालेने इस कार्यको अच्छी तरह साथ लिया होगा । मैंने ऐसे विश्वासघातीका इस तरह क्यों विश्वास किया ? क्षत्रियों के योग्य चरित्रको धारण करनेवाले इस वणिक्के पुत्रको मैंने पहले ही क्यों नहीं निष्प्राण कर दिया ? $ २४५. उतने में ही आगे-आगे चलनेवाले चतुर मनुष्योंके द्वारा जिनके देखने के अभिलाषी मनुष्यों की भीड़ दूर की जा रही थी ऐसे जीवन्धरस्वामी पर्वत के शिखर से ३५ सिंह के समान गजराज से भाइयों समेत बड़े दर्पसे नीचे उतरे और लीलापूर्वक यन्त्रपर चढ़कर विष्णु के समान एक साथ डोरी चढ़ाना, बाण धारण करना तथा बाग छोड़ना इन तीनों

Loading...

Page Navigation
1 ... 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495