Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 381
________________ - वर्णनम् दशमो लम्मः सर्वरत्नसमद्धां समुत्सारितजालिकालेन तदतिशायिनीम्, कान्तारभवमिव महासत्त्वसमाक्रान्ता निष्कण्टकात्वेन तां न्यक्कुर्वतीम्, सर्वलोकतिलकभूतां धरणीतिलक इत्यन्वर्थाभिधानां राजधानी भेजे। ६२३३. यत्र पुरुषाः परेषां पदस्खलितेषु वंशोत्थिता अप्यपर्वभगुरा अवयम्भयष्टयः, शोकज्वरजृम्भणारम्भेषु मधुरस्निग्धा अध्यजडात्मानोऽमृतपूराः, मोहमहार्णवमज्जनेषु पारप्रापण- ५ प्रवीणा अप्यपेतपाशयन्त्रणा महाप्लवाः, मतिविभ्रमदिङमोहेन नेकप्रस्थानविशङ्कटा' अध्यकण्टका सागरखेलामिव तटिनीविरतटीमिव सर्वरत्ननिखिल मणिभिः समृदा सम्पन्ना ताम् पक्षे 'जातो जातो यदुस्कृष्टं तद्वमिहोच्यते' इति रनलक्षणात् तत्तजातिघु श्रेष्टतमैः पदार्थराश्रिता, जालेन जीवन्ति मालिकाः समुत्सारिता दूरीकृसा जालिका मत्स्यजीविनी यया तस्या भाषस्तत्त्वेन तदतिशायिनी सागरखेलातिशायिनी सागरचेला तु तजालिका राजधानी तु समुरसारितजालिकेप्ति व्यतिरेकः, कान्तारभुवमिव काननावनिमिव १० महासत्वैवधिादिजन्तुमिः समाक्रान्तां पक्षे महत् सत्वं धैर्य येषां ते महासत्त्वास्तैः समाकान्तां समधिष्ठितां निष्कण्टकत्वेन क्षुद्रशत्रुरहितत्वेन पक्षे शल्यरहितत्वेन तां कान्तारभुवं न्यक्कुवती तिरस्कुर्वती राजधानी निष्कण्टका कान्तारभूस्तु सकट केति व्यतिरेकः, सर्वलोकस्य निखिल जगतस्तिळकभूतां स्थासकोपमा सर्वश्रेष्टामित्यर्थः धरणीतिलक इत्यन्वर्थाभिधानां सार्थकनामधेयो राजधानी भेजे प्राप्तवान् । ६२३३. यन्नेति-यत्र राजधान्यां पुरुषा जनाः परेषामितरेषां पदस्खलितेषु पदात् स्थानात् १५ स्खलितेषु भ्रष्टेषु पक्षे पदस्य धरणस्य स्खलितेषु प्रमादात्पतितेषु वंशोस्थिता अपि बेणुसमुरपसा अपि पक्षे कुलोत्पमा अपि पर्वसु मङ्गा न भवन्तीत्यपर्वमङ्गुरा अपर्वकुटिकाः पक्षे उत्सवादिप्त्रविनश्वराः अवष्टम्भ. यश्य आधारदण्डाः, शोक एव ज्वरस्तस्य जम्भणारम्भेषु वृद्धिप्रारम्भेषु मधुराश्च ते स्निग्धाश्चेति मधुर 'मिष्टसचिक्कणा अपि अजदारमानो इलयोरभेदाद् अजलात्मानोऽजलरूप! अमृतपूराः पीयूषपूराः पक्षे मधुरस्निग्धा मधुरभाषिणः स्नेहयुक्ताइच अजडात्मानः अजोऽमुर्ख आत्मा येषां तथाभूताः, मोह २० एव महार्णवो मोहमहार्णवो मोहमहासागरस्तस्मिन् निमज्जनेषु ब्रुडनेषु पारस्य द्वितीयतटस्य प्रापणे प्राप्ती प्रवीणाः पटवोऽपि अपेतपाशयन्त्रणा दूरीकृसपाशनियमना महापळवा महानोकाः पक्षे पारप्रापणे कार्य( लक्ष्मी बहुवल्लभा थी परन्तु वह राजधानी एकवल्लभा थी इसलिए वह उससे भी अधिक श्रेष्ठ थी)। जो यद्यपि समुद्र की वेलाके समान सर्वरत्नोंसे समृद्ध थी तथापि जालसे आजीविका करनेवालोंको दूर हटानेके कारण उसे तिरस्कृत करनेवाली थी ( समुद्रकी वेलापर २५ जालाजीवी मनुष्य रहते हैं परन्तु उस नगरीमें जालाजीवी मनुष्योंको दूरसे ही खदेड़ दिया था)। जो यद्यपि वनको भूमिके समान महासत्व- महापराक्रमी मनुष्योंसे व्याप्त थी ( पक्ष में सिंह, व्याघ्र आदि बड़े-बड़े जन्तुओंसे युक्त थी) तथापि निष्कण्टका-काँटोंसे रहित (पक्ष में क्षुद्र शत्रुओंसे रहित) होनेके कारण उसे भी नीचा दिखा रही थी (वनकी भूमि कण्टकोंसे व्याप्त था और वह राजधानी कण्ट कोंसे रहित थी)। तथा जो समस्त लोकको तिलकस्वरूप थी। ३० ६२३३. जहाँके मनुष्य अन्य पुरुषोंको पैरोंसे स्खलित होनेपर सहारा देनेके लिए उन आलम्बन यष्टियों के समान थे जो वंशोत्थित---बाँससे उत्पन्न होनेपर भी ( पक्षमें उच्च कुलमें उत्पन्न होकर भी ) अपर्वभंगुरा-पोरोंसे भंगुर नहीं थे ( पक्षमें अनुत्सव के समय साथ छोड़नेवाले नहीं थे)। शोकरूपी ज्यरकी वृद्धिका प्रारम्भ होनेपर उन अमृतके प्रवाहोंके समान थे जो मधुर एवं स्निग्ध होनेपर भी (पक्ष में मनोहर और स्नेहयुक्त होनेपर भी ) अजडात्मा---अजलरूप ३५ नहीं थे ( पक्षमें अप्रबुद्धात्मा नहीं थे)। मोहरूपी महासागर में डूबनेके समय उन बड़ी १. विस्तृता इति टि।

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