Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 353
________________ .३१५ - वृत्तान्तः] अष्टमी कम्मः लताभिहतिवशबाह्याभ्यन्तरभ्रान्तकन्दुकनिरन्तरोत्पतननिपतनदृष्टनष्टमध्ययष्टिक च, कदाचिद्गीत'मार्गानुधावदुम्नमनावनमनप्रकारेण कदाचिन्मण्डलभ्रमणेन कदाचिद्गोमूत्रिकाक्रमेण च निषपणोत्थिताया निमीलितोन्मोलितायाः स्थितप्रस्थितायाः कस्याश्चिदारब्धकन्दुकक्रीडायाः कन्यकायाः पाणितलतः परिभ्रश्य पुरः पतन्तं कमपि कन्दुकमैक्षिष्ट । २१२. पुनः किमिदमिति कौतुकाविष्टस्तत्क्षण एवोद्ग्रोवः स व्यग्नं तद्गृहस्योपरितल- ५ मुत्पश्यन्न पश्यदात्मावलोकनावतीर्णतत्प्रथम मदनवितोर्णविकारच्यापारितनयनेन्दोवररश्मिविसरव्याप्तराजमार्गा स्वौकसामपि दुरुपलम्भां तो कन्दुकस्वामिनी कन्यकाम् । आसोच्वायमप्यनन्य संकोचिता वेल्लिता वेष्टनोग्रता या बाहुलता भुजबल्ली तथा याभिहतिस्ताडनं तस्या वर्शन बाह्याभ्यन्तरं भ्रान्तं यत्कन्दुक गेन्दुकं तस्य निरन्तरं सततम् उत्पतननिपतनाभ्याम्--उत्थानावस्थानाभ्यां दृष्टनष्टा-- मध्ययष्टिरवलग्नयष्टियस्मिन्कर्मणि तद् यथा स्यात्तथा, कदाचित् जातुचिद् गीतमार्ग सङ्गीतपथम् अनुधाचन् १० अनुसरन् य उनमनावनमनप्रकार उत्सतनावपतनविधिस्तेन, कदाचित् मण्डल भ्रमणेन वर्तुलाकारभ्रमणेन, कदाचित् गोमूत्रिकाक्रमण चक्रपद्धत्या च भादी निषषणा पश्चादुत्थिता सस्या उपविष्टोस्थितायाः, भादौ निमीलिता पश्चादुन्मीलिता तस्याः प्रकाशाप्रकटितायाः, आदी स्थिता पश्चात प्रस्थिति स्थितप्रस्थिता तस्याः स्थितप्रयातायाः आरब्धकन्दुकक्रीडायाः प्रारखगेन्दुककेल्याः कस्याश्चित् कन्य कायाः पतिवरायाः पाणितलतः करतकात् परिभ्रश्यावमुच्य पुरोऽग्रे पतन्तं कमपि कन्दुकं गेन्दुकम् एशिष्ट विलोकयामास । १५ १२, पुनरिति-पुनरनन्तरं किमिदम् । इति कौतुकेन कुतूह लेनाविष्टः समाकान्तः तरक्षण एवं तत्काल एव ऊध्र्व ग्रोवा यस्य तथाभूत उन्नमिसकन्धरः स जीवको व्यग्रं साकुलवं यथा स्यात्तथा तद्गृहस्थोपरितलं तद्वचनस्योपरितनमागम् उत्पश्यन् उदवलोकयन् , आत्मनः स्वस्पावलोकनेन दर्शनेनावतीः प्रकटितो यो मइनो मारस्तेन वितीर्णः प्रदत्तो यो विकारस्तेन व्यापारिते सञ्चालिते ये नयनेन्दीवरे नेत्रनीलकमले तेषां रश्मीनां मयूलानां विसरेण समूहेन व्याप्तो राजमार्गो यया ताम्, स्वर्ग भोको येषां २० तेषामपि देवानामपि दुरुपलम्भा दुःखेन प्राप्याम् ai पूर्वोक्ता कन्दुकस्वामिनी गेन्दुकस्वामिनी कन्यकाम् अपश्यत् । भासीच्चेति-अयमपि च जीबंधरोऽपि अनन्यजेन कामनाकान्त इत्यनन्यजाक्रान्तः सकाम क्रियासे अस्त-व्यस्त मोतियों के हारसे उसका वक्षःस्थल मनोहर जान पड़ता था। कभी फैलायो हुई, कभी टेढ़ी की हुई और घुमायो बाहुलताके प्रहारके वश बाहर और भीतर घुमाती हुई गेंद के निरन्तर उठने और गिरने के समय उसकी कमर दिखती तथा छिपती रहती थी। २५ गेंदकी गति के अनुसार पीछा करते समय वह कभी ऊपर उठती थी तो कभी नीचेकी ओर आती थी। वह कन्या कभी गोलाकार भ्रमणसे और कभी गोमूत्रिकाके क्रमसे बैठ जाती थी, कभी खड़ी हो जाती थी, कभी नीचेकी ओर दुधक जाती थी, कभी पुनः तनकर खड़ी हो जाती थी, कभी चलते-चलते रुक जाती थी और कभी पुनः चलने लगती थी। २१२. तदनन्तर यह क्या है ? इस कौतुकसे आविष्ट हो जीवन्धरकुमारने ज्यों ही ३० ग्रीवाको ऊपर उठा व्यग्रतापूर्वक उस घरके उपरिम तलको देखा त्यों हो उन्होंने गेंदकी स्वामिनी स्वरूप उस कन्याको देखा जिसने कि अपने देखने से प्रकट हुए सर्वप्रथम कामके द्वारा प्रदत्त विकारसे चलते हुए नेत्ररूपी नील कमलोंकी किरणों के समूहसे राजपथको व्याप्त कर रखा था और जो देवोंके लिए भी दुर्लभ थी। कुमार भी कामसे आक्रान्त हो उसके -- - -. -.. १ क. ग. कदाचिदुद्गोतमार्गा।

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