Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 352
________________ ३१४ गद्यचिन्तामणिः [ २११ बिमलायाः - वादिपदप्रचारम्, मुहःसू सिषिकुरभारव्यापारितकरम् अवसूस्त प्रतिसमाहितकर्णपूरीकृत कर्णपुरपल्लवानिलशोषित कपोलपत्रभङ्गदूषिधर्मसलिलाङ्कुरम्, दरगलितकुचतटांशुकनियमनप्रवणैकपाणिपल्लवम्, उल्लसदपदेशस्मित चन्द्रिकाभिषिक्तबिम्बाधरम् पृथुनितम्बबिम्बोत्पतद व पतदतिवलक्षक्षीमोज्ज्वलम्, सलीलकर व्यापारशैघ्रधानतिक्रमितप्रकृत के लोधवलदन्तपत्रप्रतिभासमाधानम्, * प्रतिसमयसुलभोत्यानावस्था ननिर्व्यवस्थमुक्ताहारमनोहरः स्थलम्, प्रसृता कुञ्चितवेल्लित बाहु यत्र भ्रमणं संचरणं तेन कणन्ति शब्दायमानानि यानि मणिभूषणानि रत्नालंकरणानि तेषां रवेण शब्देन विश्राणितो पत्तो यो उसका उत्पत्रिसंवादी विरोधहीनः पत्रप्रचारश्चरणनिक्षेपो यस्मिन् कर्मणि तथा स्यात्तथा, मुहुरिति — मुहुर्भूयोभूयः संसिनो नीचैर्लस्थमाना ये चिकुरमाराः केशसमूहास्तेषु व्यापारितो करौ यरिमन् कर्मणि तद्यथा स्यात्तथा अवस्रस्वेति — आदाववस्त्रानि नलम्बितानि पश्चात् प्रतिसमा १० हितानि सुस्थिरीकृतानि यानि कर्णपूराणि कर्णालंकरणानि तरकृता ये कर्णपूरपल्लवाः कर्णाभरणत्वेन कर्णेषु स्थापिताः किसलयास्तेषामनिलेन वायुना शोषिता नाहींकृता ये कपोलपत्रमा गण्डस्थलपत्र रचनाप्रकाशस्तेषां दूषिणो धर्मसकलाङ्कुराः स्वेदकणा यस्मिन्कर्मणि तद् यथा स्यात्तथा, दरेति-दुरमीषद् गलितमध:पतितं यत्कुचतांशुकं स्तनतटवस्त्रं तस्य नियमने स्थिरीकरणे प्रवणः संलग्न एकपाणिपल्लव एककर किसलयो यस्मिन् कर्मणि तद् यथा स्वारुथा, उल्लसदिति----उ --- उल्लसत् प्रकटीभवत् यदुपदेशस्मितं व्याजहसितं तदेव १५ चन्द्रिका ज्योत्स्ना तयाभिषिको बिम्बाधरो दशनच्छदो यस्मिन्कर्मणि तद्यथा स्यात्तथा पृथ्विति - पृथु नितम्यविम्यात् स्थूलनितम्बमण्डलाद् उत्पतत् ऊर्ध्वं गच्छत् भवपतद् अधोगच्छच्च यद्वलक्षौमं शुक्लदुकूलं नोज्ज्वलं यथा स्यात्तथा, सलीलेति - सलीलः सविभ्रमो यः करव्यापार: पाणिचेष्टितं तस्य शैयण क्षिप्रकारिखेनानतिक्रमितानि नातिशिथिकानि प्रकृतकेलीधवलानि प्रस्तुतक्क्रीडासितानि यानि दन्तपत्राणि कर्णोपरितन प्रदेशाभरणानि तेषां प्रतिमासमाधानं सुस्थिरीकरणं यस्मिंस्तद्यथा स्यात्तथा प्रतिसमयेति२० प्रतिसमयं क्षणं क्षणं सुरुमाभ्यामुत्थानात्रस्थानाभ्यामुत्पतनाच पतनाभ्यां निर्व्यवस्थञ्चको यो मुक्ताहारस्तेन मनोहरं रमणीयमुरःस्थलं वक्षःस्थलं यस्मिन्कर्मणि तद्यथा स्यात्तथा प्रसृतंति - प्रसृता वितता आकुञ्चिता कहीं गगनचुम्बी सुन्दर महलके अग्र भागपर गेंद खेलनेवाली किसी कन्याके हस्ततलसे छूटकर सामने गिरती हुई कोई गेंद देखी। गेंद खेलते समय विभ्रमपूर्वक घुमानेसे शब्दायमान मणिमय आभूषणों के शब्द से दी हुई लयके अनुरूप ही उस कन्या के पैरोंका संचार हो रहा २५ था। बारम्बार नीचे की ओर लटकते हुए केशोंके समूहको ठीक करने के लिए उसका हाथ चलता रहता था। नीचे की ओर लटकने के बाद पुनः ठोककर कानों में पहने हुए कर्णपूरके पल्लवोंकी वायुसे सुखाये गये कपोलोंको पत्ररचनाको दूषित करनेवाला पसीना उठ रहा था । कुछ-कुछ नीचे की ओर गिरे हुए स्तनतटके वस्त्रको ठीक करनेमें उसका एक हस्तरूपी पल्लव सदा संलग्न रहा करता था। किसी छलसे प्रकट होनेवाली मन्द मुसकानरूपी चाँदनीसे ३० उसका बिम्बोष्ठ अभिषिक्त हो रहा था । स्थूल नितम्ब वित्रसे फूलकर ऊपर की ओर उठने और तदनन्तर नीचे की ओर गिरते हुए सफेद रेशमी वस्त्रसे उज्ज्वलता प्रकट हो रही थी । लीलापूर्वक हाथ चलानेको शीघ्रता से अनतिक्रमित प्रकृत क्रीडा में जो कानका पत्ता ढीला हो रहा था उसे ठीक किया जा रहा था । प्रत्येक समय सुलभ ऊपर उठने और नीचे गिरनेकी

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