Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 358
________________ ३२० गद्यचिन्तामणिः [ २१५. सुरमाः - मग्नतारकदृशं गाढग्रहणलग्नदशनशिखरप्रणिहिताधरमणिमतिसुरभिपरिमलाङ्गरागव्यतिकरविशेपकमनीयवपुषं विषमेषुराज्यधर्ममिव विधृतविग्रहं प्रेमविवशविस्मृतनिमेषनिश्चलपक्ष्मपुटाभ्यां स्फुटितकमलमुकुलपेशलाभ्यां लोचनाभ्यामापादचूडमालोक्य 'अहो महाभागस्य ते सौभाग्य सर्वभुवनातिशायि, यदेवमनुपुरं पुरंध्रीभिः स्वयं वियसे । संप्रति समूढायाः प्रौढ भाग्याया भजन्त्यभिख्यां कानि कान्यक्षराणि ।' इत्यक्षतसौहृदवनिः पद्ममुखादयः पर्यपृच्छन् । सात्यंधरिरपि संजातसंतोषः किचिदुन्मिषितहसितचन्द्रिकाच्छलेन सिञ्चन्निव स्नेहामृतम् 'अधरितकमला सा विमला नाम्ना' इति व्याहार्षीत् । हर्षविकसदास्यानां वयस्यानां गोष्ठीमधितिष्ठ. उपभोगस्य सुरनम्यायासेन परिश्रमेण निमग्नतारके निमग्नकनीनिके दशौ लोचने यस्य तम्, गाढग्रहगेन लग्नं यदशनशिखरं दन्ताग्रभागस्तेन प्रणिहितो युक्तोऽधरमणिनींचैदन्तच्छदो यस्य तम्, अतिसुरभिरति१० सुगन्धियुक्तः परिमलो यस्य तथाभूतो योऽङ्गरागस्तस्य व्यतिकरण विलेपनच्यापारेण विशेषकमनीयं सातिशय सुन्दरं वपुः शरीरं यस्य तम्, विस्तो विग्रहः शरीरं येन तं सारीरं विधर्मपुराज्यधर्ममिव काम. राज्यधर्मपित्र, प्रेमविवशे प्रीत्यायत्ते विस्मृतनिमेपे निष्पन्दे अतएव निश्चले स्थिरे पक्षमपुटे ययोस्ताभ्याम् स्फुटिते विकसिते ये कमलमुकुले नलिनकुडमले तद्वत् पेशले मनोहरे ताभ्यां लोचनाभ्यां नयनाभ्याम् . उपलक्षितमिति शेषः, तं जीवंधरम पादादारभ्य चूडामभिच्याप्येत्यापादचूडम् आलोक्य दृष्ट्वा 'अहो ! १५ महाभागस्य महानुभावस्य ते सौमाग्यं सर्वभुवनातिशायि निखिललोकातिशायि वर्तत इति शेषः, यद् यस्मान् कारणात् एवम नेन प्रकारेण पुरं पुरमित्य नुपुरम् अनुनगरम् पुरन्ध्रीमिः स्त्रोमि: स्वयं विग्रसे स्वीक्रियसे। सम्प्रतीदानोम् समूहापाः कृतविवाहायाः प्रौढभाग्यायाः प्रकृष्टमाश्ययुक्ताया अमिख्यां नाम 'अभिख्या नामशोमयोः' इत्यमरः कानि कानि अक्षराणि भजन्ति प्राप्नुवन्ति ।' इनत्यम् अक्षतमरखण्डितं सौहृदवम मैत्रीमागों येषां तथाभूताः पद्ममुखादयः पर्यपृच्छन् परिपृच्छन्ति स्म । सात्यंधरिरपि जीवंधरोऽपि २० संजातः संतोषो यस्य तथाभूतः समुपसंतोषः सन् किञ्चिन्मनाग उम्मिषितं प्रकटितं यद् हसितं हास्य तदेव चन्द्रिका कौमुदी तस्याश्छलेन व्याजेन स्नेहामृतं प्रीतिपीयूषं लिञ्चचिव 'अधरिता तिरस्कृता कमला कश्मीर्यया तथाभूता लक्ष्मीः पनालया पमा कमला श्रीहरिप्रिया' इत्यमरः, सा नाम्ना विमला अस्तीति शेषः' इति व्याहार्षीत् जगाद । हर्षेण विकसन्ति भास्यानि मुखानि येषां तेषां वयस्यानां मित्राणां गोष्ठीम् अधि चरणोंके महावर के रससे लाल-लाल हो रहा था, उपभोग सम्बन्धी खेदसे जिनके नेत्रों की पुत२५ लियाँ भीतरकी ओर निमग्न हो रही थीं, जिनके अधरोष्ठ में जोरसे ग्रहण करने के कारण दाँतों के अग्रभाग गड़े हुए थे, अत्यन्त मनोज्ञ सुगन्धिसे युक्त अंगरागके संमिश्रणसे जिनका शरीर विशेष सुन्दर जान पड़ता था, और जो शरीरको धारण करनेवाले कामदेवके राज्यधर्मके समान प्रतीत होते थे ऐसे जीवन्धरकुमारको जिनके पलक प्रेमसे विवश, टिमकारको भुला देनेवाले एवं निश्चल थे तथा जो खिली हुई कमल की बोड़ियों के समान सुन्दर थे ऐसे नेत्रोंसे २० पैरसे लेकर चोटी तक देखकर अखण्ड मित्रताके मार्गको धारण करनेवाले पद्मास्य आदि मित्र पूछने लगे कि 'अहो ! आप महाभाग्यवान हैं, आपका सौभाग्य समस्त संसारको उल्लंघन करनेवाला है, क्योंकि इस तरह आप नगर-जगर में स्वयं ही स्त्रियों के द्वार। वरे जाते हैं । उत्कृष्ट भाग्यको धारण करनेवाली जिस स्त्रीको अभी हाल विवाहा है उसके नामको कौन-से ___अक्षर प्राप्त हैं ? तदनन्तर जिन्हें सन्तोष उत्पन्न हो रहा था, तथा कुछ-कुछ प्रकट हुई मन्द ३५ मुसकानरूपी चाँदनीके बहाने जो स्नेहरूपी अमृतको मानो सींच ही रहे थे ऐसे जीवन्धर कुमारने कहा कि 'वह नामसे लक्ष्मीको तिरस्कृत करनेवाली विमला है। हर्षसे जिनके मुख १. म. महाभाग्यस्य ।

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