Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 336
________________ २१८ गधचिन्तामणिः [ १९९-२०० नन्दाढ्यन - क्षिप्तमक्षिभ्यां प्रत्यक्षयितुमिव पृथक्कृतं कनीयांसं सांससंसर्ग निसर्गनिर्मले महीतले निवेशयनिष्कासिताखिलजनस्तदागमनप्रकारमाकारपिशुनितान्तर्गताहादः शनैरनुयुयुजे । 5२००. नन्दाढयोऽपि पूर्वजानुयोगसमुपगतपूर्वप्रकृताध्याननवोकृत मन्यु भरः सदैन्यं साकूतं सादरं च वक्तुमुपाक्रमत-'पूज्यपाद, जगदुपप्लवकारिभवदु पल्तवार्तावात्यया निकाम२. स्फूर्तिमदादिषह्याभिषङ्गोऽपि कोपकृपोटयोनिकृताङ्गारसंकाशदशि विस्फुलिङ्गविस्फूर्जदसह शपरुषवचसि रचितारुकपरिधानभीकरवपुषि रोषदष्टोष्ठदर्शनमात्रत्रासितहस्तवति हेलोदस्तहेतिनिवप्रणयिपाणी - रणाभिमुखीभवत्वप्रमुखप्रमुखवयस्यवर्गे, केनचिदकितागतिना गगनं नीय आनन् कुर्वन अनेकाहसं निरन्तरमने ककालम् हृदयनिक्षिप्त स्वान्तस्थापितम् अभिभ्यां नेत्राभ्याम् प्रत्यक्ष यिनुमिय साक्षात्कमिव यस्कृतं कनीयान्स कनिष्टं अससंसांग सहितं सांससंसर्ग स्त्रस्कन्धस्य समीप एक १० निसर्गनिमले स्वभावस्वच्छे महीतले निवेशयन् स्थापयन्, निष्कासिता दूरीकृता अखिल जनाः समनपुरुषा येन तथाभूतः सन् नदागमनप्रकारं तस्। कनिष्टस्यागमनं तस्य प्रकारी व्यवस्था तम् आकारेण स्वमुखाकृत्या पिशुनितः सूचितोऽन्तर्गतालादो हृदयानन्दो येन तथाभूतः सन् शनैर्मन्दर अनुयुयुजे पप्रच्छ । ६२८०. नन्दाढयोऽवीसि गोपि कामहोप पूर्वजस्थानजस्यानुयोगः प्रश्नस्तेन समुपगतं संप्राप्तं यत पूर्वप्रकृताध्यानं पूर्ववटनास्मरणं तेन नवीकृतो नूतनीकृतो मन्युभरः शोकसमूहो यस्य १५ सयाभूतः सन् सदैन्यं सकातय साकृतं साभिप्रायं सादरं च सविनयं च वक्तुं कथयितुम् उपाक्रमत तत्परो ऽभवत्-पूज्यपाद ! पूज्यचरण ! जगदुषप्लवकारिणी लोकायकारिणी या भवदुपप्लुतवार्ता भवदुपद्रववार्ता सैव वात्या वातसमूहस्तया निकामस्फूर्तिमता तीवस्फूर्तियुक्तानामविसस्यः सोहुमशक्योऽमिषङ्गो दुःसं यस्य तथाभूतोऽपि सन् अहमित्युत्तरेण संबन्धं कोपकृपीटयोनिना क्रोधाग्निना कृता अङ्गारसंकाशा भङ्गार सदृशो दृशो नेत्राणि यस्य तथाभूने, विस्फुलिङ्गविस्फू जन्ति असहशानि परुषवासि यस्य तथाभूसे, रचितं २० कृतं यदर्थोस्कपरिधानं तेन भोकरं वपुर्यस्य तस्मिन् , रोषेण क्रोधेन दष्टा ये ओष्टा दन्तच्छदास्तेषां दर्शन मात्रेण त्रासिता भीषिता हस्तवन्तः समर्था येन तस्मिन् , हेलयानायासेनोदस्ता उस्थापिता ये हेतिनिवहाः शस्त्रसमूहास्तेषां प्रणयिनी पाणी यस्य तस्मिन् , रणाभिमुखीमवंश्वासो पद्ममुखप्रमुख वयस्यवर्गश्चेति यह बतला रहे थे कि ये दोनों अभिन्न हैं। बहुत समयसे जिसे हृदयमें छिपाकर रखा था ऐसे छोटे भाईको आँखोंसे प्रत्यक्ष देखने के लिए ही मानो उन्होंने पृथक् कर कन्धे से कन्धा २५ मिलाकर स्वभावसे ही निमल पृथ्वीतलपर बैठाते हुए धीरे-धीरे उससे उसके आनेका प्रकार पूछा। उस समय उन्होंने वहां से समस्त लोगोंको दूर कर दिया था और उनके आकारसे उनके हदयका हर्प सूचित हो रहा था। ६२७०. बड़े भाईके प्रश्नसे पिछली घटनाका स्मरण होनेके कारण जिसके शोकका समूह नवीन हो गया था ऐसा नन्दाढ्य भी दीनता, हृदयकी चेष्टा और आदर के साथ कहने के ३० लिए उद्यत हुआ। उसने कहा कि 'हे पूज्यपाद ! जगत्को उपद्रव करनेवाले आपके ऊपर भी उपद्रव आया है। इस समाचाररूपी आँधीसे अत्यन्त स्फूर्तिको प्राप्त हुए असह्य दुःखसे मैं दुःखी हो गया। और क्रोधरूपी अग्निके द्वारा किये हुए अंगारके समान जिनके नेत्र हो गये थे, तिलगोंकी चड़चड़ाहट के समान जिन के वचन असाधारण कठोर थे, आधी जाँच तक पहिने हुए वस्त्रसे जिनके शरीर भयंकर थे, क्रोधपूर्वक इसे हुए आठके देखने मात्रसे ३५ जिन्होंने कुशल मनुष्यों को भयभीत कर दिया था, और जिनक हाथ अनायास ही ऊपर उठाये हुए शस्त्रों के समूहसे युक्त थे ऐसे पद्ममुख आदि प्रमुख मित्रों का समूह ज्यों ही युद्धके लिए सम्मुख हुआ त्यों ही देखने में आया कि अकस्मात् आनेवाला कोई व्यक्ति आपको लिये

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