Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 332
________________ २९. गद्यचिन्तामणिः [ १९७ जीबंधरस्य स्र्मनि, सुजनहृदय इन निर्मलोभवति हदनिवहे, नवयौवनसबोडयोषिज्जधनानीव पुलिनानि शनै:शनैः प्रदर्शयन्तोषु नदोषु, अराजवति राष्ट्र इव मधुपपेटकाक्रान्ते कुसुमितविटपिनि, गलितयोग्यकाले शैलूष इव नर्तनं त्यजति नर्तनप्रिये, मानिनीजनम वाचमुपलब्धुं योग्यां कुर्वस्विव निकामं कूजत्सु कोकिलेषु, भास्वत्सूर्यकिरणगुरुपादभक्त्या भव्यमनसोव स्फारविकासिनि पद्मसरसि, शरद५ वितकुसुमशरे मरुदुपेतमरुत्सख इव दुरुत्सहप्रतापिनि, नातिशीतलोष्णः सुराज चेष्टितरिवाभीष्टः वरमनि नभसि निरस्ता दृरीकृता नीरदानां मेवानाम् अवस्था सत्त्वं यस्मिस्तस्मिन्निव पक्षे निरस्ता दूरीकृता नीरदा दन्तरहितावस्था येन तथाभूत, सुजनहृदय इव सजनचेतसीव हृदनिवहे तडागसमूह निर्मलीभवति स्वच्छीमवति पक्षेऽपगतकालुप्ये सति, नदी तस्मिां नई पौरन नूतनायेक सबोड:: पलज्जा या योषितस्त हण्यस्तासां जवनानीव नितम्वस्थलानीव शनैः शनैः पुलिनानि तटानि प्रदर्शयन्तीषु प्रकटयन्तीपु १० सतीषु, अराजवति राजरहिते राष्ट्र इव देश इव कुसुमितविटपिनि पुष्पितपादपे मथुपान भ्रमराणां पक्षे मद्यपायिना पेटकेन समूहेनाकान्त व्याप्ते सति, गलितो निर्गतो योग्यकालोऽहविसरो यस्य तथाभूते शैलूष इन नट इव नर्तनप्रिये मयूरे नतनं नृत्यं त्यजति सति, कोफिलेषु पिकेषु मानिनीजनस्य स्त्रीजनस्य मञ्जवाचं मनोहरवागीम् उपलब्धुं प्राप्तुं योग्यां गुणनिकाम् अभ्यासमित्यर्थः 'योग्या' गुणमिकाभ्यासः' इति धनंजयः, कुत्स्विव निकाममत्यन्तं कूजत्सु शब्दं कुर्वाणषु, मास्वन्तो देदीप्यमाना ये सूर्यकिरणाः किरणमालि। १५ किरणास्त गुरुपादा गुरुचरणा इथेति भास्वसूर्यकिरणगुरुपादास्तेषां भक्त्या सेवनेन पसरसि कमलाकरे मन्यमनसोव मन्यजनचेतसीच म्फारविकासिनि स्कारमत्यर्थ विकसतीत्येवंशोलस्तथाभूते प्रफुल्ले प्रदृष्टे च सति भव्यमनाक्षे मास्त्सूर्यकिरणा इव गुरुपादा निम्रन्यचरणास्तेषां मनया गाढानुरागणेप्ति समासी ज्ञेयः, शरदा शरहतुनान्वितः सहितः कुसुमशरः कामस्तस्मिन् मरुडुपेतः पवनोपेतश्चासौ मरुत्सखश्चेति यनिश्चेति तस्मिनिव दुरुस्सहं यथा स्यात्तथा मतपतीत्येवंशीलस्तस्मिन् सति भथवा दुरुत्सहप्रतापो विद्यत २० यस्य तथाभूते सति, सुराजचेष्टितरिव सुनृपचेष्टितैरिव नातिशीतलोप्पो तिशान्ताशान्तः पक्षे नाति शिशिरोष्णैः अभीष्टैरनुकूलैः कशिपुभिर्भोजनाच्छादनः निकाममस्यन्त काममभिलषितं ददातीति कामदायी स आकाशके कलंकरूप पंकको धोने लगा। कवचको धारण करनेवाला बालक जिस प्रकार नीरदावस्था-दाँतरहित अवस्थाको दूर कर देता है, उसी प्रकार आकाशने भी नारदा वस्था-मेवोंकी स्थितिको दूर कर दिया। तालाबोंके समूह सज्जनांके हृदयके समान निर्मल | २५ हो गये। जिस प्रकार, नव-यौवनसे लजीली स्त्रियाँ धीरे-धीरे अपने नितम्बस्थल प्रकट करती हैं उसी प्रकार नदियाँ भी धीरे-धीरे अपने तट प्रकट करने लगी। जिस प्रकार समीचीन राजासे रहित राष्ट्र मधुपपेटक-मद्यपायी लोगोंके समूहसे आक्रान्त रहना है, उसी प्रकार फूलोंसे व्याप्त वृक्ष मधुपपेटक-भ्रमरसमूहसे व्याप्त हो उठे। जिस पर:: नृत्य के योग्य समय निकल जानेपर नट नृत्य को छोड़ देता है उसी प्रकार नृत्यके योग्य वर्षाका. ३० समय निकल जानेपर मयूरने नृत्य छोड़ दिया। कोयले अत्यधिक शब्द करने लगी जिससे वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो मानवती स्त्रियों के मनोहर वचन प्राप्त करनेके लिए अच्छे वचन बोलने का अभ्यास ही कर रही थीं। जिस प्रकार गुरुओंके चरणोंकी भक्तिसे भव्य जीवोंका मन अत्यधिक खिल उठता है उसी प्रकार देदीप्यमान सूर्यकी किरणोंकी भक्तिसे कमल सरोवर अत्यधिक खिल उठे। जिस प्रकार वायुसे सहित अग्नि असहनीय प्रताप३५ तेजसे युक्त हो जाती है उसी प्रकार शरद् ऋतुसे सहित कामदेव असहनीय प्रतापसे युक्त हो गया । उस शरद् ऋतुके आनेपर उत्तम राजाको चेष्टाओंके समान न अत्यन्त शान्त और

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