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-वर्णनम् ]
सप्तमी लम्भः धरममये, कुङ्कुमपङ्कपङ्किलपयोधरामन्तरमान्तं वमन्तीमिव रागम्, करालकालमेघकालिमकालागधगर्भगर्भागारगर्भस्थिताम्, चिरप्रभामिवाचिरप्रभाम्, प्रसन्मनोहार्याहार्यने कमणिमहःस्तबकामगस्त्यचकित रत्नावशेषित जलामिव रत्नाकरस्थलीम्, करिणोगिक वारिसंपर्क वकिताम्, प्रजानायचित्तवृत्तिमिव प्रतापार्थिनीर, सुराङ्गनामिय महो स्पर्शनपराचीनपदा क्षेमश्रियम्, क्षेमभूगिमिव पराकान्तमहोपतिः, कुमुमशरशराकान्तोऽयं कुमार: क्षणमपि नात्याक्षात् । ५
१८१, अथ कदाचित्तस्यां वन त्रियामायां तृतीयप्रहरे विरहायसनायतमराविषयीस्तस्मिन् । पराकान्तबासी महीपतियेत्ति पराकान्तमहीपतिः पराक्रमसुन पार्थिवः संवभूमिमित्र कल्याणयुक्त पृथिवीमिा कुसुमशरस्य कामस्य शरैणिराकान्तः असं कुमार क्षणमपि क्षमश्रिमम् नात्याक्षीन न मुमीचति रुकिया संबन्धः । अथ अमश्रियं विशेषपितुमाह ---कश्मपन काइमीरद वेण पकिली पयुक्ती पयोधरी स्तनौ यस्याताम् , अतएव अन्तमध्येऽमान्तं सगं प्रेमाणं बमरीमिवोगिन्तीमित्र, कराल- १० कालवस्यच कालिमा कापण्यं यस्य तथाभूतः कालागुरुधूप गर्भ मध्ये यस्य तथाभूतो या गर्भागारी मध्यगृहं तस्य गर्भ मध्ये स्थिता ताम् , चिरप्रभा चिरदीप्तिमचिरनमामिव सौदामिनी मिव, मनोहराणि सुन्दराणि यानि आहायांणि विभुषणानि तेषु खचिता ये नैकमणयो नानारत्नाभि नेग मष्टामत ब्रदाः कान्तिगुच्छाः, प्रसरन्तः प्रसरणीला मनोहायर्याहायनकमणिमहःतत्रका यस्यास्ताम् , अतएव अगस्त्यन कुरमसम्भवेन बुलुकितं स्नावशेषितजलं यस्यास्तां रत्नाकरस्थलीमिव समुदभूमिभिध, करिणीमित्र हस्तिनीमिब १५ वारिणो जलस्य संपकण चकितां वस्तां पक्षे वारि गन्धबन्वनी तस्याः स्पर्श चफित्ताम् , प्रजानाथस्य लोकपालस्य चित्तवृत्तिमिव मनोवृत्तिमित्र प्रतावं प्रभावार्थयान इत्येवं शोला ताम् स प्रभावः प्रतापश्च यत्तेजः कोशदण्डजम्' इत्यमरः, पक्षे शैत्यपीडितत्वेन प्रकृयस्तापः प्रतापरतस्याधिनी ताम्, मुराङ्गनामिव देवामिव महारशस्य भूमस्तस्य स्पर्शनात् पराचीन पदां पराङ्मुख चरणां शरवातलस्थितत्वादिति मावः, पक्ष स्वर्गस्थितत्वात् महीरणस्पर्शनपराङ्मुखपदाम् ।
६१८1. अथ कदाचिदिति-अथानन्तरं कदाचित् जाचिद् कस्यांचन गियामायां रजन्यां तृतीयप्रहरे तृतीयाम विरहव्यसनं विप्रष्टम्भदु.खमंदावतमसं गाढतिमिरं तस्य विषयोमविष्यन्त्या खेद-खिन्न हो रहे थे और अंगारधानियों-गुरसियोंकी अग्नि निःशंक होकर सेवन करने के योग्य थी ऐसी वऋतुके परिपक्क होनेपर--पूर्ण जोर के साथ प्रवृत्त होने पर काम के बागोंसे आक्रान्त जीवन्धर कुमार, जिस प्रकार पराक्रमसे युक्त राजा कल्याणकारिणी भूमिका नहीं २५ छोड़ता है उसी प्रकार क्षेमश्रीको क्षण भर के लिए भी नहीं छोड़ते थे। उस समय क्षेमनीके स्तन केशरकी पंकसे पंकिल थे इसलिए वह ऐसी जान पड़ती थी मानो भीतर नहीं समानेवाले रागको उगल ही रही थी। वह भय उत्पन्न करनेवाले काले-काले मेघाँकी कालिमासे युत्ता कृष्णागुम चन्दनकी धूपसे सुवासित गालय के मध्य में स्थित थी जिससे इसी ज्ञान पड़ती थी मानो चिरकाल तक चमकने वाली बिजली ही हो। उसके सुन्दर आभूषणों में लगे ३० हुए अनेक मणियांक तेजका पुंज इधर-उधर फैल रहा था जिससे ऐसा जान पड़ती थी मानो अगम्त्य ऋपिके द्वारा चुलुकित होनेसे जिसमें रत्नमात्र ही शंप रहे गय थे गेली ममुद्रकी तलहटी ही हो । वह हस्तिनी के समान वारि-जलके संपर्कसे भयभीत रहती थी ( पक्ष में हाथी बाँधनेकी रस्सीके सम्पर्क से भयभीत थी)। राजाको चित्तवृत्तिके समान प्रतापार्थिनी-~-प्रकट गरमीको चाहनेवाली थी ( पक्षमें तेजको चाहनेवाली श्री) और देवांगनाके ३५ समान पृथिवीतलके स्पर्शसे विमुख पैरोंसे युक्त धी-बह वर्षाऋतुमें पृथिवीपर पैर भी नहीं रखना चाहती थी ( पक्ष में स्वर्गेनिवासिनी होने पृथिव के स्पर्श रहित थी)।
१८१. अथानन्तर किसी समय एक रात्रिक नीसरे पहरमें अध विरः जन्य दुःखरूपी
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