Book Title: Dandak Prakaran Sarth Laghu Sangrahani Sarth
Author(s): Gajsarmuni, Haribhadrasuri, Amityashsuri, Surendra C Shah
Publisher: Adinath Jain Shwetambar Sangh
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________________ (16. लोकसंज्ञा-लौकिक व्यवहार को | मति ज्ञानावरणीय तथा अनुसरने की वृत्तिशब्द अर्थ का दर्शनावरणीय कर्म के विशेष ज्ञान (ज्ञानोपयोग) क्षयोपशम से 7.8.9.10. क्रोध-मान-माया-लोभ कषाय मोहनीय के उदय से 11. मोह-ममत्व मोहनीय के उदय से 12. धर्म-धर्म करने की वृत्ति मोहनीय के क्षयादि से 13. सुख-सुख की आनंद की अनुभूति रति मोहनीय के उदय से 14. दुःख-दुःख खेद की अनुभूति अरति मोहनीय के उदय से 15. जुगुप्सा-अरुचि, कंटाला की . / जुगुप्सा मोहनीय के उदय से बेजारी की अनुभूति 16. शोक-शोक-दिलगीरी की अनुभूति | शोक मोहनीय के उदय से जीव को संज्ञी अथवा असंज्ञीं कहा जाता है वह अनुभव संज्ञा नहीं, लेकिन आगे कही गई दीर्घ कालिकी आदि संज्ञाओं से हैं। .. इन संज्ञाओं में से देवों को ज्यादातर परिग्रह और लोभ संज्ञा, नरकवालों को भय संज्ञा और क्रोधसंज्ञा, तिर्यंच को आहारसंज्ञा तथा मायासंज्ञा और मनुष्यों को मुख्यरूप से मैथुनसंज्ञा और मानसंज्ञा होती हैं। ५.संस्थान-६ _ (२)सामुद्रिक शास्त्र में कहे हुए प्रमाण से युक्त अथवा प्रमाण से रहित बना हुआ शरीर का जो आकार है उसे संस्थान कहते है। वह छ प्रकार के है :फूटनोट :(१)कूत्ते यक्ष है, कूत्ते यम को देखते है, ब्राह्मण देव है। कौआ ऋषि या पूर्वज है, मोरनी को मोर के पंख की हवा से या मोर के आंसू चाटने से गर्भ रहता है, कर्ण कान में से हुआ था, अगस्त्य ऋषि समुद्र पी गये थे, इत्यादि अनेक लौकिक कल्पनाओं को लोकसंज्ञा कहते है / (2)1. पुरुष अपने अंगुल से 108 अंगुल ऊंचा हो, उसमें भी गुल्फ (एडी ऊपर का ढेका का भाग) 4 अंगुल, जंघा (एडी से ऊपर का और गुडे (घुटने)) से नीचे का लंबा भाग) दंडक प्रकरण सार्थ (17 संस्थान द्वार