Book Title: Dandak Prakaran Sarth Laghu Sangrahani Sarth
Author(s): Gajsarmuni, Haribhadrasuri, Amityashsuri, Surendra C Shah
Publisher: Adinath Jain Shwetambar Sangh
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________________ संस्कृत अनुवाद सर्वेऽपिपर्वतवराः, समयक्षेत्रे मन्दरविहीनाः। धरणितलेउवगाढाउत्सेधचतुर्थभागे॥२९॥ अन्वय सहित पदच्छेद समयक्खित्तंमिमंदरविणा,सब्वेअविपव्वयवरा। उस्सेहचउत्थभायंमि,धरणितलेउवगाढा||२९|| शब्दार्थ: पव्वय- पर्वत वरा- श्रेष्ठ समयखितम्मि-समयक्षेत्र में अढीद्वीप में, मनुष्य क्षेत्र में मंदर- मेरु पर्वत विहूणा-बिना, सिवाय धरणि- पृथ्वी तले- तल में, अंदर उवगाढा-दटेहुए, जमीन के भितर रहे हुए। उस्सेह- उत्सेध, ऊंचाई चउत्थ- चौथा भायम्मि-भाग में गाथार्थ : समयक्षेत्र याने ढाईद्वीप में रहे हुए मेरु के सिवाय सभी मुख्य पर्वत भूमि में अपनी ऊंचाई से चौथे भाग के, (पाव भाग) दटे हुए हैं। विशेषार्थ : सूर्य-चन्द्र की गति से उत्पन्न हुआ समय आदि काल (2 // द्वीप के बाहर सूर्यादि स्थिर होने से वह समयक्षेत्र नहीं) अर्थात् (सयम, आवलि, मुहूर्त इत्यादि अनेक भेदवाले काल) जिस क्षेत्र में चलता है वह समयक्षेत्र 2 // द्वीप प्रमाण है। लघु संग्रहणी सार्थ (180) पर्वतों की भूमि में गहराई