Book Title: Dandak Prakaran Sarth Laghu Sangrahani Sarth
Author(s): Gajsarmuni, Haribhadrasuri, Amityashsuri, Surendra C Shah
Publisher: Adinath Jain Shwetambar Sangh
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________________ नसा जाई,नसाजोणी,नतं ठाणं, नतंकलं। नजाया, नमुआ, जत्थ, जीवा, वार अणंतसो|||| अर्थ :- एकेन्द्रिय आदि ऐसी कोई जाति नहीं है चोराशी लाख योनि में से ऐसी कोई योनि नहीं, चौद राज लोक में ऐसा कोई स्थान-क्षेत्र नहीं है तथा ऐसा कोई कुलकोडी में कुल नहीं है। जहां पर सब जीव ने अनंतबार जन्म न पाया हो, मृत्यु न पाया हो, अर्थात् सभी जाति, योनि, स्थान और कुल में इस जीव ने अनंतबार जन्म और मृत्यु को प्राप्त किया हुआ है। ... संसार से मोक्ष के लिए प्रार्थना गाथा संपइतुम्हभत्तस्सदंडगपयभमणभग्गहिययस्स। दंडतियविरय (इ)सुलहलहु मम दिंतु मुक्खपयं॥४३|| संस्कृत अनुवाद संप्रति तवभक्तस्य,दण्डकपदभ्रमणभग्नहृदयस्य दण्डत्रिकविरत (ति) सुलभ, लघुममददतुमोक्षपदम्॥४३॥ अन्वय सहित पदच्छेद संपइदंडगपयभमणभग्ग हिययस्सतुम्हभत्तस्सममलहु तियदंडविरय (इ)सुलहंमुक्खपयंदितु॥४३॥ फूटनोट : इसमें ग्रंथकार ने 'विरय' पद द्वारा 'विरक्त हुए जीवों का' ऐसा अर्थ स्वयं ने स्वोपज्ञ अवचूरि में लिखा है और वृत्तिकार ने 'विरई' पद द्वारा विरति से ऐसा अर्थ किया है ये दोनो अर्थ अनुकुल ही है। दंडक प्रकरण सार्थ (118) संसार से मोक्ष के लिए प्रार्थना