Book Title: Dandak Prakaran Sarth Laghu Sangrahani Sarth
Author(s): Gajsarmuni, Haribhadrasuri, Amityashsuri, Surendra C Shah
Publisher: Adinath Jain Shwetambar Sangh
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________________ शब्दार्थ :स- सहित दसगुणिओ- दस गुणा कोसे- एक कोस, एक गाऊ / पजते- पर्यंन्त में, अंतभाग में गंगा- गंगा नदी (जहां नदी समुद्र में मिलती है वहां) सिंधूण- सिंधू नदी का इय- इस प्रमाण से वित्थरो- विस्तार दुदु- दो-दो (दुगुणा-दुगुणा) मूले- मूल में (जहां से नदी गुणणेण- गुणा करने पर . . . निकलती है वहां) सेसाणं- शेष गाथार्थ : गंगा और सिंधू का विस्तार मूल में एक गाऊ युक्त छह योजन है और अंतभाग में (मूल से) दसगुणा है इस तरह दुगुणा शेष नदियों का विस्तार है। विशेषार्थ : _____ गंगा-सिंधु-रक्ता-रक्तवती इन चार बाह्य क्षेत्र की नदीयों का प्रवाह सरोवर में से जहाँ निकलता है वहां प्रारंभ में एक गाउ छह योजन याने सवा छह (6 / ) योजन चौडा है और उसके बाद 14000 नदीयों का पानी मिलने से क्रमसर प्रवाह बढता बढता जहां समुद्र में मिलता है. वहां 62 / / (साडे बासठ) योजन * फूटनोट :गंगा-सिन्धु का जो 62 // योजन का प्रवाह और चार नदीयां का निर्गम इत्यादि कहा हुआ उत्कृष्ट स्वरूप वर्तमानकाल संबंधी नहीं है। लेकिन अवसर्पिणी का पहला तथा उत्सर्पिणी का अंतिम आरा आश्रयी इन नदीयों का स्वरूप समझना / हिमवंतादि क्षेत्र की 10 महानदीयां का पूर्वोक्त स्वरूप सदाकाल के लिए समान रहता है। इसलिए वर्तमानकाल की गंगा-सिन्धु का विलक्षण स्वरूप देखकर उपरोक्त स्वरूप को गलत मानने की चेष्टा न करें। भरत और ऐरावत इन दो क्षेत्र में कुदरती रूपसे ही क्षेत्र और काल में ऐसे बडे विलक्षण परिवर्तन होता रहता है जिससे इनका कोई लघु संग्रहणी सार्थ (१७६सदीयों के मूल तथा it col diedle