Book Title: Dandak Prakaran Sarth Laghu Sangrahani Sarth
Author(s): Gajsarmuni, Haribhadrasuri, Amityashsuri, Surendra C Shah
Publisher: Adinath Jain Shwetambar Sangh
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________________ उपपात चालु, 17 वां च्यवन द्वार, १८वां स्थितिद्वार। गाथा असन्नि नरअसंखा, जहउववाएतहेवचवणेवि। बावीससग तिदसवास-सहस्सउक्किट्ठपुढवाई||२६|| संस्कृत अनुवाद असंज्ञिनराअसंख्येया,यथोपपातस्तथैव च्यवनमपि, द्वाविंशतिसप्तत्रिदशवर्ष-सहसा उत्कृष्टं पृथ्व्यादयः॥२६|| अन्वय सहित पदच्छेद असन्निनरअसंखा, जहउववाएतहएवचवणेअवि. पुढवि आईउक्किट्ठबावीससगति दससहस्सवास॥२६|| शब्दार्थ असन्नि नर-असंज्ञि, सम्मुर्छिम मनुष्य / अवि-भी असंखा-असंख्य सग-सात जह-जैसा, जिस तरह, जो ति-तीन तह-वैसा, उस तरह, वे वास-वर्ष एव-ही उक्किट्ठ-उत्कृष्ट से पुढवाई-पृथ्वीकायादि गाथार्थ (1) असंज्ञि याने सम्मूर्छिम मनुष्य असंख्य है। जैसा उपपात, वैसा च्यवन है। पृथ्वीकायादि चार भेद उत्कृष्ट से बावीस, सात, तीन और दस हजार वर्ष तक रहते है। फूटनोट : ____(1) इस प्रकरण के दंडकों में असंज्ञि मनुष्य नहीं गिने है फिर भी यहां पर उपपात च्यवन द्वार में प्रसंगानुसार सम्मुर्छिम मनुष्य के बारे में बताया गया है। / दंडक प्रकरण सार्थ (86) उपवात, च्ववत, स्थिति द्वाट चालु