Book Title: Dandak Prakaran Sarth Laghu Sangrahani Sarth
Author(s): Gajsarmuni, Haribhadrasuri, Amityashsuri, Surendra C Shah
Publisher: Adinath Jain Shwetambar Sangh
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________________ / सम्मूर्छिम विर्यंच की उत्कृष्ट अवगाहना में जलचर की 1000 योजन, चतुष्पद की गाऊ पृथक्त्व (दो से नव गाउ) खेचर के धनुष्य पृथक्त्व (2 से 9 धनुष्य'५): उर:परिसर्प की योजन पृथकत्व, भुजपरिसर्प की धनुष्य पृथक्त्व है / सम्मूर्छिम मनुष्यों की उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल का असंख्यातवा भाग है। 3) संघयण दोनों को एक छेवट्ठा संघयण होता है। 4) संज्ञा- सभी को 4-10 संज्ञा होती है। संस्थान- सबको एक हुंडक संस्थान होता है। कषाय ४-सबको क्रोध-मान-माया-लोभ ये चार कषाय होतें हैं। लेश्या ३-कृष्ण-नील-कापोत ये तीन लेश्या सबको होती है। 8) इन्द्रिय ५-सबको पांच इन्द्रिय होती है। समुद्घात ३-सबको वेदना-मरण-कषाय ये 3 समुद्घात् होतें हैं। 10) दृष्टि- मिथ्या दृष्टि और 1 सम्यग् दृष्टि ये 2 दृष्टि सम्मू. तिर्यंच पंचेन्द्रिय को है, वहां अपर्याप्त अवस्था में विकलेन्द्रिय की तरह सास्वादन सम्यक्त्व का सद्भाव होने से सम्यग्दृष्टि कितनेक सम्मू. तिर्यंच पंचेन्द्रिय को होता है, और पर्याप्त अवस्था में सब मिथ्यादृष्टिवाले ही होते है तथा सम्मू. मनुष्य में को तो दोनों अवस्था में 1 मिथ्या दृष्टि ही होती है। 11) दर्शन 2- सबको 1 चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन ऐसे दो दर्शन होते है। 12) ज्ञान 2- श्री सिद्धांत के अभिप्रायानुसार सास्वादन सम्यक्त्व में ज्ञान होने से सम्मू. तिर्यंच पंचेन्द्रिय को अपर्याप्त अवस्था में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दो ज्ञान माने है, और कर्मग्रंथ के अभिप्राय से सास्वादन समकित में अज्ञान माना हुआ होने से समू. पंचे. तिर्यंच को ज्ञान माना नहीं है इसलिए अज्ञान है तथा समू. मनुष्य को तो ज्ञान का अभाव याने अज्ञान है। फूटनोट : (१)महोरग जाति के समू. उरपरिसर्प तो शतपृथकत्व (200 से 900) योजन प्रमाण के भी होते है, लेकिन किसी भी अपेक्षा की वजह से वह अवगाहना शास्त्र में नहीं मानी है। लेकिन बृहत् संग्रहणी की वृत्ति में कोई आचार्यकृत् गाथा में ये समू. महोरगो की अपेक्षा से ‘मच्छुरगा जोयण सहस्सं' ऐसा चौथा पद कहा है। दंडक प्रकरण सार्थ (113) वेद द्वार