Book Title: Dandak Prakaran Sarth Laghu Sangrahani Sarth
Author(s): Gajsarmuni, Haribhadrasuri, Amityashsuri, Surendra C Shah
Publisher: Adinath Jain Shwetambar Sangh
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________________ निरयउव्वट्टाएएसुउववज्जंति, नसेसेसु॥३५|| संस्कृत अनुवाद पर्याप्त संख्येयायुर्गर्भजतिर्यनारानरकसप्तकेयान्ति। नरकोदवृत्ताएतेषूपपद्यन्ते, नशेषेषु।।३५|| अन्वय सहित पदच्छेद पज्जतसंख गब्भय तिरिय नरा निरयसत्तगेजंति निरय उव्वट्टा एएसुउववज्जतिनसेसेसु॥३५|| शब्दार्थ पजत्त-पर्याप्त निरय-नरक से संख-संख्यात वर्ष का आयुष्य उव्वट्टा-निकले हुए, उद्धर्तित हुए सत्तगे-सातो नरक में एएसु-इन (दो) दंडक में जंति-जाते है उववजंति-उत्पन्न होते हैं न सेसेसु-शेष दंडक में नहीं गाथार्थ पर्याप्त संख्यात वर्षायु वाले गर्भज तिर्यंच और मनुष्य सातों नरक में उत्पन्न होते हैं या जाते हैं और नरक में से निकले हुए (नरक के जीव) इन दो दंडक में ही उत्पन्न होते हैं। दूसरी जगह नहीं होते हैं। पृथ्वी, अप् और वनस्पति में आगति गाथा पुढवी-आउ-वणस्सइ-मज्झेनारयविवज्जियाजीवा। सवेउववज्जति निय-निय-कम्माणुमाणेणं॥३६|| दंडक प्रकरण सार्थ (103) गति - आगति द्वार चालु