Book Title: Dandak Prakaran Sarth Laghu Sangrahani Sarth
Author(s): Gajsarmuni, Haribhadrasuri, Amityashsuri, Surendra C Shah
Publisher: Adinath Jain Shwetambar Sangh
View full book text
________________ विशेषार्थ समूर्छिम मनुष्य असंख्यात ही है, जो मनुष्य के 14 अशुचि स्थानों में जैसे कि विष्टा, मूत्र, पसीना आदि में उत्पन्न होते है, वे इस जगत में सब मिलकर असंख्यात ही होते है इसलिए एक समय में उनकी उत्पत्ति और मरण एक साथ असंख्य जितना ही होते है / कभी कभी ये समूर्च्छिम मनुष्य 24 मुहूर्त तक बिल्कुल नहीं होते है ऐसा भी होता है / एक मुहूर्त याने 48 मिनिट या दो घडी। १७वां च्यवन द्वार में सभी दंडकों का च्यवन(मरण) की एक साथ (समकाल) की संख्या भी पूर्णतया १६वां उपपात (उत्पत्ति) द्वार के समान ही जानना। // 24 दंडक में समकाल में उपपात च्यवन की संख्या। 1 ग. तिर्यंच 3 विकलेन्द्रिय | संख्यात 1 नरक असंख्यात 13 देव 1 ग.मनुष्य संख्यात .. . 1 वनस्पति अनंत 4 स्थावर असंख्य फूटनोट :- . . विरह का अर्थ यह है कि जहां जितना विरह कहा गया है वहा उतने काल तक कोई नया जीव उत्पन्न नहीं होता है उसे उपपात विरह कहते है और उतने काल तक उस दंडक में से कोई भी जीव मरण न पाये वह च्यवन विरह कहा जाता है। दंडक प्रकरण सार्थ (87) उपपात, च्ववन, स्थिति द्वार चालु