Book Title: Dandak Prakaran Sarth Laghu Sangrahani Sarth
Author(s): Gajsarmuni, Haribhadrasuri, Amityashsuri, Surendra C Shah
Publisher: Adinath Jain Shwetambar Sangh
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________________ शब्दार्थ :अस्संघयणा-संघयण रहित संघयण-संघयण, संहनन विगल-विकलेन्द्रिय छग्गं-छह छेवट्ठा-सेवार्त्त संघयणवाला मुणेयव्वं-जाणना गाथार्थ . पांच स्थावर, देव और नारक संघयण रहित होते है। विकलेन्द्रिय में सेवार्त्त या छेवट्ठा संघयण है और गर्भज मनुष्य तथा तिर्यंचों को छ संघयण जानना। विशेषार्थ : __(1) पांच स्थावर, तेरह देव और एक नरक इन उन्नीस दंडकों में संघयणे नहीं है, क्योंकि इन जीवों के शरीर में हड्डी नहीं होती है, और संघयण तो हड्डी की रचना को कहते है / तथा शंख-छीप, कोडी आदि बेइन्द्रिय जीवों को तथा चींटीया आदि तेइंद्रिय जीवों और भ्रमर आदि चरिंद्रिय जीवों में कितने तो स्पष्ट कठीन-मजबूत हड्डी वाले होते है तो कोई अस्पष्ट सूक्ष्म हड्डीवाले होते है इसलिए इन तीन विकलेंद्रिय को सिर्फ एक ही छट्ठा सेवार्त्त या छेवट्ठा संघयण होता है। गर्भज तिर्यंचों और मनुष्य को छह संघयण होते है, लेकिन एक जीव को समकाल में तो एक ही होता है। ||24 दंडक में संघयण॥ 5 स्थावर- ) संघयण 3 विकलेन्द्रिय-१ सेवार्त्त 13 देव- रहित 1 ग.तिर्यंच-1 छह 1 नरक- 0 है। 1 गं. मनुष्य-J संघयण फूटनोट : (1) विकलेन्द्रिय में अलसियां आदि जीव बिना हड्डी के जैसे दिखाई देते है, लेकिन उदयस्थानक सोचने पर उन जीवों के अस्पष्ट रूप से भी संघयण संभवित है। श्री जीवाभिगम सूत्र में हड्डी की अपेक्षा से नहीं लेकिन बल की अपेक्षा से देवों को पहला संघयण और एकेन्द्रिय को छट्ठा कहा है। तथा नरक को असंघयणी कहे हैं। दंडक प्रकरण सार्थ संघयण द्वार