Book Title: Dandak Prakaran Sarth Laghu Sangrahani Sarth
Author(s): Gajsarmuni, Haribhadrasuri, Amityashsuri, Surendra C Shah
Publisher: Adinath Jain Shwetambar Sangh
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________________ संस्कृत-अनुवाद एकादशसुरनैरयिकयोस्तिर्यक्षुत्रयोदश, पञ्चदश, मनुजेषु। विगले चत्वारपञ्चवाते (यौ), योगत्रिकंस्थावरेभवति॥ अन्वय सहित पदच्छेद सुरनिरए इक्कारस, तिरिएसुतेर, मणुएसुपन्नर। विगले,चउ,वाए,पण,थावरेतिगंजोगहोई||२२|| शब्दार्थ इक्कारस-ग्यारह योग / पन्नर-पंद्रह योग तेर-तेरह योग तिगं-तीन योग गाथार्थ देव और नारक को ग्यारह योग, तिर्यंच को तेरह योग और मनुष्य को . पंद्रह योग है विकलेन्द्रिय को चार वायुकाय को पांच और स्थावर को तीन योग है। विशेषार्थ 24 दंडक में 15 योग इस तरह है, देव के तेरह दंडक (13) और नरक का 1 दंडक इन 14 दंडक में मन के 4 योग, वचन के 4 योग तथा वेक्रिय वैक्रियमिश्र तथा कार्मण योग ये तीन प्रकार के काययोग, सभी मिलाकर ग्यारह योग होते है / (१)ये योग कौनसे समय पर कौन-कौनसे होते है ? वह स्वरूप ग्रंथान्तर से जान लेना। फूटनोट : ____(1)15 योग-कब-कब होते है उनको संक्षिप्त वर्णन 4 मनोयोग मनपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद पर्याप्त अवस्था में होते है। 4 वचनयोग भी पर्याप्त अवस्था में होते है। औदारिक, वैक्रिय और आहारक योग तीनों अपनी-अपनी पर्याप्त अवस्था में होते है। औदारिक मिश्र उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर अपर्याप्त अवस्था तक (कितने आचार्य के मतानुसार शरीर पर्याप्ति पूर्ण हो वहां तक) तथा केवलि समुद्घात में 2-6-7 वे समय पर, इस तरह कर्मग्रंथानुसार दो तरह से है दंडक प्रकरण सार्थ (80) योगद्वार