Book Title: Dandak Prakaran Sarth Laghu Sangrahani Sarth
Author(s): Gajsarmuni, Haribhadrasuri, Amityashsuri, Surendra C Shah
Publisher: Adinath Jain Shwetambar Sangh
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________________ करके रहा हुआ होता है (१)इसलिए उसको छेदस्पृष्ट (हड्डी के दो भाग से स्पर्श किया हुआ) संघयण कहते है अथवा जिसके सांधे तेलादि मर्दन (मालिश) की सेवा से ही दृढ़ रहते है वह सेवार्त / तथा छेदवर्ति अथवा छेदवृत्त (हड्डी के अंतिम भाग को छेद कहते है, उससे वृत्त याने रहनेवाला उसको छेदवर्ति, छेदवृत्त भी कहते है। ४.संज्ञा 4-6-10-16 संज्ञानम्-संज्ञा :- जिससे जीव की चेतना जानी जा सके उसे संज्ञा कहते है, याने चेतना / वह दो प्रकार की है मति आदि 8 प्रकार की ज्ञान-संज्ञा और मोहनीय आदि कर्म के उदय से या क्षयोपशम से उत्पन्न होनेवाली अनुभव-संज्ञा कही जाती है। सिद्धांतों में अनुभव संज्ञा के लिए संज्ञा का अर्थ अभिलाषा किया गया है। अनुभवसंज्ञा 4-6-10 और 16 प्रकार की है वह इस प्रकार है :संज्ञा कौनसे कर्म के उदय से? 1. आहार-खाने की इच्छा अशाता वेदनीय के उदय से 2. भय-डर लगना भय मोहनीय के उदय से 3. मैथुन-विषय सेवनकी इच्छा वेद मोहनीय के उदय से 4. परिग्रह-संग्रह करने की इच्छा लोभ मोहनीय के उदय से (2)5. ओघसंज्ञा-१) पूर्वसंस्कार / / मति ज्ञानावरणीय तथा 2) मोघम-मुंगु 3) सामान्य शब्द / दर्शनावरणीय कर्म के अर्थ का भान 4) (दर्शनोपयोग) क्षयोपशम से फूटनोट :(१)इस तरह उखल (खंडनी) में मुसल की तरह स्पर्श करके रही हुई हड्डी, खींचने से या गिरने से जब उसके स्थान से निकल जाती है। हड्डी उतर गयी (मोच आ गई) ऐसा कहा जाता है। (2)1. वेलडीया (लता) सपाट (सीधी) भूमि छोडकर दिवार, पेड, थंभे आदि पर चढती है। तथा बालक जन्म के समय से ही स्तनपान करता है आदि को ओघ संज्ञा कहते है। दंडक प्रकरण सार्थ (16) संज्ञा द्वार