Book Title: Dandak Prakaran Sarth Laghu Sangrahani Sarth
Author(s): Gajsarmuni, Haribhadrasuri, Amityashsuri, Surendra C Shah
Publisher: Adinath Jain Shwetambar Sangh
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________________ . 21. संज्ञा-३ आगे चौथे द्वार में कही हुई आहार, भय, मैथुन आदि संज्ञाओं से यह संज्ञा अलग है। यह संज्ञा तीन प्रकार की है। वह इस प्रकार है : 1) हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा :- जिसमें वर्तमान काल के विषय का ही चिंतन, विचार और उपयोग हो वह हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा कही जाती है। इस संज्ञावाले जीव वर्तमान काल में रहे हुए दुःख को दूर करने का और सुख की प्राप्ति का उपाय ढूंढते है और वह उपाय तुरंत स्वीकार करते है। फिर बाद में उस उपाय से भूतकाल में दुःख हुआ हो या भविष्य काल में दुःख होनेवाला हो, तब भी उनको इसके बारे में ख्याल नहीं रहता है। इस तरह की संज्ञा मनोविज्ञानरहित ऐसे असंज्ञि त्रस जीवों को (द्वि, तेई, चतु, और असं.पं) होती है क्योंकि ये जीव जिस स्थान पर रहते है उस स्थान में उनको अग्नि, ताप आदि का उपद्रव लगने से वे तुरंत वहां से हट जाते है लेकिन जहां से हटकर जिस स्थान में शांति प्राप्त की है उस स्थान में अग्नि और ताप आकर वापस उपद्रव करेगा या न करेगा, या पहले भी यह स्थान उपद्रव वाला था या नहीं, इत्यादि आगे-पीछे का कुछ भी नहीं सोचते, सिर्फ वर्तमानकाल के सुख का ही ख्याल करनेवाले होते है। इसलिए असंज्ञिओं को हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा वाले कहते है। क्योंकि इन जीवों को विशिष्ट प्रकार की विचार शक्तिवाला मनोविज्ञान नहीं है। यहां हेतुवाद का अर्थ है इष्टप्राप्ति और अनिष्ट त्याग, उनके ही निमित्त कारण का उपदेश याने कथन जिसमें है वह हेतुवादोपदेशिकी और सम्-सम्यक् प्रकार का ज्ञा-ज्ञान वह संज्ञा। . . .. 2. दीर्घकालिंकी संज्ञा :- दीर्घकाल याने भूतकाल और भविष्यकाल की विचारशक्तिवाली संज्ञा वह दीर्घकालिकी संज्ञा / यह संज्ञा मनोविज्ञानवाले अथवा मनो पर्याप्तिवाले सभी संज्ञि जीवों को होती हैं। जीवों का संज्ञि और असंज्ञि ऐसे दो भेद जो बार-बार आते है वह दीर्घकालिकी संज्ञा से ही बने। अर्थात् दीर्घकालिकी संज्ञावाले संज्ञि जीव कहलाते हैं। ये जीव भूतकाल में क्या दंडक प्रकरण साई (39) संज्ञा द्वार