Book Title: Dandak Prakaran Sarth Laghu Sangrahani Sarth
Author(s): Gajsarmuni, Haribhadrasuri, Amityashsuri, Surendra C Shah
Publisher: Adinath Jain Shwetambar Sangh
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________________ 5. केवलज्ञान :- आत्मा साक्षात्कार रूप से सभी पदार्थ में रहे हुए विशेष धर्म का संपूर्ण ज्ञान जानने की जो शक्ति, वह केवलज्ञान। 13. अज्ञान-३ अज्ञान अर्थात् ज्ञान का अभाव ऐसा अर्थ न करना लेकिन कुत्सित, निंद्य, बुरा या विपरीत ज्ञान उसे अज्ञान कहा जाता है। पदार्थ जिस स्वरूप में हो, उस स्वरूप में न समझे लेकिन विपरीत तरह से जाने वह ज्ञान गलत माना जाता है। इसलिये अज्ञान कहा जाता है और इससे सद्गति या मोक्ष नहीं हो सकता इसलिए कुत्सित, निंद्य, बुरा कहा जाता है। अर्थात् विपरीत होने से निंद्य है। 1) मति अज्ञान :- गलत मतिज्ञान वह मति अज्ञान। 2) श्रुत अज्ञान :- गलत श्रुतज्ञान वह श्रुत अज्ञान। 3) विभंग ज्ञान :- गलत अवधिज्ञान वह विभंगज्ञान। वि-विरुद्ध, भंग-ज्ञान, विरुद्ध ज्ञान जिसमें हो वह विभंग ज्ञान / जैसे द्वीप समुद्र असंख्य है लेकिन शिवराजर्षि नामक ऋषि को सात द्वीप और सात समुद्र जितना अवधिज्ञान उत्पन्न होने पर इतने ही द्वीप समुद्र है ज्यादा नहीं, ऐसी श्रद्धा करने से वह अवधिज्ञान, विभंगज्ञान के रूप में गिना गया, और उसके बाद भगवंत के वचन से असंख्य द्वीप, समुद्र की श्रद्धा वाले हुए उसी समय वह अवधिज्ञान के रूप में गिना गया। और सत्य, असत्य विवेक बिना बोलनेवाले आदमी का सत्य वचन भी असत्य और असत्यवचन भीअसत्य माना जाता है। ऐसे मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से विवेक रहित पुरुष का मतिज्ञानादि ज्ञान अज्ञान ही जानना। 14. योग-१५ योग याने आत्म प्रदेश में होनेवाला स्फुरण, व्यापार आंदोलन, हलनचलन, उथल-पाथल, वह पुद्गलों के संबंध की वजह से होता है. जो स्फुरणा मनोयोग योग्य वर्गणा के बने हुए मन की मदद से हो वह मनोयोग कहा जाता है। जो दंडक प्रकरण सार्थ (32) अज्ञान और योग द्वार