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बीस आठवां सर्ग १-६ राजनगर का चातुर्मास संपन्न कर मुनि भिक्षु का प्रस्थान और
श्रावकों की अभ्यर्थना। ७-११ राजनगर से सोजत जाते मार्गगत कठिनाइयों के कारण पांच
मुनियों के दो दल और एक दलनेता वीरभाण को शिक्षा । १२-३३ मुनि वीरभाण का सोजत में मुनि भिक्षु से पूर्व आगमन और
गुरु रघुनाथजी को राजनगर की घटना की पूरी अवगति । ३४ घटनाक्रम के श्रवण से आचार्य की अपूर्व मनःस्थिति । ३५-४२ मुनि भिक्षु का आगमन और प्रारंभिक वार्तालाप । ४३-४७ अवसर की प्रतीक्षा में मुनि भिक्षु ।
४८ , जिज्ञासाओं के समाधान के लिए आचार्यश्री से निवेदन । ४९-५१ अवसर की प्रतीक्षा क्यों ?
५२ . गुरु को विनम्र व्यवहार से प्रतीति उत्पन्न कर साथ में रहना । ५३-५८ मुनि भिक्षु द्वारा ऐसा करने का औचित्य । ५९-८१ मुनि भिक्षु का रघुगण में असंभावित पुनः प्रवेश से राजनगर
वासी श्रावकों की मनःस्थिति और विचारों का उद्वेलन । नौवां सर्ग
१-४. आचार्य रघुनाथजी के साथ मुनि भिक्षु का वार्तालाप प्रसंग ।
५ शिवपथ के अनुसरण का निवेदन । ६ विद्वान् और धीधन कौन ? । ७-८ श्रद्धा का स्वरूप और उसकी प्राप्ति की दुर्लभता ।
९ श्रद्धा के तीन प्रकार । १०-१२ मिश्रधर्मश्रद्धा का खंडन । १३-१६ आज्ञा ही धर्म है। उसकी अखंड आराधना करना ही अध्यात्म
१७-१९ एक साथ एक ही योग।
२० एक ही कार्य से पुण्य-पाप दोनों नहीं। २१ एक समय (काल का न्यूनतम भाग) में कोई भी कृत्रिम कार्य
नहीं होता। २२-२३ अध्यवसाय, परिणाम, योग आदि एक कार्य में विषम नहीं
होते । तब एक ही कार्य में पुण्य-पाप कैसे ?