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अठारह ४९-५३ बगडी नगर के बाह्यभाग में नदी के तट पर विशाल वटवृक्ष
की छाया में आचार्य रघुनाथजी द्वारा विक्रम संवत् १८०८
मृगशिर कृष्णा १२ को भिक्षु को दीक्षा प्रदान । ५४-६६ शैक्ष शिष्य भिक्षु को पाकर आचार्य की मनःस्थिति, साथ में
विहरण और शिक्षण । ६७-७५ मुनि भिक्षु की जिज्ञासाएं, गुरु-शिष्य संबंध आदि । ७६-८३ सिंघाडपति के रूप में अन्यत्र विहरण और अपार यशःप्राप्ति । ८४-८५ प्रथम चार चातुर्मास । ८६-१००, मेवाड देश का वर्णन । १०१-१०६ बागोर नगर का वर्णन । १०७-१२४ कृष्णोजी और भारमलजी-पिता-पुत्र के दीक्षा-स्थल 'वट
वृक्ष' का वर्णन और दीक्षा की संपन्नता । १२५-१२६ - पांचवां और छठा चातुर्मास । पांचवां सर्ग
१-१९ राजनगर का प्राकृतिक सौन्दर्य । २०-२४ राजनगर के वास्तव्य पौरवंशीय श्रद्धालुओं की स्थिति और
धार्मिक श्रद्धा। २५-४७ श्रद्धालुओं द्वारा शास्त्राभ्यास, उसके प्रतिबोध-प्राप्ति और
तात्कालिक श्रमणसंघ के आचार के प्रति विप्रतिपत्ति । __४८ श्रावकों द्वारा संघ से संबंध-विच्छेद और वन्दन-परिहार । ४९-९३ राजनगर के श्रावकों की स्थिति से आचार्य रघुनाथजी की : मनोव्यथा, स्थिति के निराकरण के उपायों की व्यर्थता ।
श्रावकों में विघटन और समस्या की भयंकरता ।। .. ९४-९७ मुनि भिक्षु को स्थिति के निराकरण के लिए राजनगर भेजा
जाना। ९८-१०६ मुनि भिक्षु का प्रस्थान और जनता की वितर्कणा। १०७-११.१ अरावली पर्वतमाला का वर्णन । ११२-१४३ भिक्षु का राजनगर में आगमन, श्रावकों से विचार-विमर्श और
वन्दन-परिहार की अशेष कथा का श्रवण । १४४-१५३ श्रावक संबोध को सुनकर मुनि भिक्षु का मनश्चिन्तन और
वाग्कौशल से समाधान निदर्शन। १५३-१६३ गुरु-मोह से प्रतिबद्ध मुनि भिक्षु की विपरीत प्ररूपणा और
श्रावकों द्वारा पुनश्चिन्तन की प्रेरणा। छठा सर्ग
१-२ जिनेश्वरदेव की स्तुति और प्रस्तुत सर्ग का प्रतिपाद्य ।