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भरतेश वैभव
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अभ्यास करते-करते यह मालूम होता है कि मैं तनुवातवलयमें रहनेवाले सिद्ध परमेष्ठीके समान हो गया हूँ। ___ आत्मा बोलता नहीं, चलता नहीं, उसके शरीर नहीं, मन नहीं। यहांतक कि उसके पचेंद्रिय भी नहीं हैं। अनंतसुख केवलज्ञान यही उसका निजस्वरूप है । ऐसी आत्मा इस शरीरमें हैं।
जिस ममय वह आत्मा अपने स्वरूपका विचार करता है उस समय नानाप्रकारके कर्म अपने आप उसे छोड़कर भाग जाते हैं और उसे ऐसा सुख प्राप्त होता है जैसा उसने कभी अनुभव नहीं किया और न पहिले कभी देखा अथवा सुना। ___मुक्तिसुख के लिये वह अभेद भक्ति कारण है। यही जिनेंद्र भगवाद्वारा उपदिष्ट है । राजन् ! इस वातको मुक्तिगामी जन जानते ही हैं । तुम राजयोगी हो ! वैराग्यरसका तुम्हें अच्छी तरह अनुभव है, इसलिये तुमको तो इसका और भी अधिक अभ्यास है।
हे राजन् ! इस आत्मानुभवसे उत्पन्न सुखको क्या हम लोग जानते है ? नहीं, हम तो केवल बोलते ही हैं। इस स्वानुभवजन्य सुखको आस्मयोगियोंके शिरोमणि तुम ही अनुभव करते हो इस बातको हम सब स्वीकार करते हैं।
महाराज ! आप अध्यात्मसूर्य हो ! आपके समक्ष हम लोगोंका अध्यात्मरसका वर्णन करना सचमुचमें सूर्यको दीपक दिखाना है ।
जैसे चन्दनके वृक्षोंके समीप रहनेवाले अन्य वृक्ष भी उनके संसर्गसे थोड़े सुगन्धित हो जाते हैं, उसी प्रकार आपके सत्संगसे आत्मविशुद्धिके मार्गको हम भी थोडासा समझ गये इसमें क्या आश्चर्य है ?
आपसे प्राप्त अनुभवको आपकी ही सेवामें आज उपस्थित करनेपर आपको सन्तोष हुआ लथा आपके भक्तोंको भी हर्ष हुआ । आज मैंने "यथा राज तथा प्रजा" या स्वामीके समान उनका परिवार होता है, इन वाक्योंके यथार्थ स्वरूपका साक्षात्कार किया है।
भरतेश्वरने इस प्रकार दिविजकलाधर कविकी रचना बहुत उत्सुकताके साथ सुनी। बह रचना सम्राट्के हृदयमें पहुंची 1 अध्यात्मविषयको सुनने की भरतेश्वरकी तीव्र इच्छा रहती है। ___ महाराज भरत मन ही मन यह विचार कर प्रफुल्लित होते हैं कि इस कविने मेरे अन्तरंगको पहिले कभी आँखों देखा हो इस प्रकार विवेचन किया है । कितनी बुद्धिमत्ता है यह ? इस कविको आत्मज्ञान अवश्य प्राप्त हुआ है। यदि ऐसा नहीं है तो इस प्रकार वचन चातुर्य