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भारतमें दुर्भिक्ष। जल्दी जल्दी अवतार लेकर भारतको भूमण्डलमें सर्वोच्च सिद्ध कर दिया था । अन्न, धन और वस्त्रकी इतनी बहुलता थी कि मुफ्तमें मिलने पर भी कोई छूता तक नहीं था । यदि यह कहा जाय कि उन दिनों भारतमें घी-दूधकी नदियाँ बहती थीं, तो अनुचित न होगा । भारतसे कोई वस्तु विदेश नहीं जाती थी, भारतका धन-धान्य भारतमें ही रहता था। सतयुगके बाद त्रेता, द्वापर और बादमें कलियुगका नम्बर आया । कलियुगके चार हजार वर्षों का वर्णन भी लिखें तो सतयुगादिसे कुछ भी कम न होगा। कारण हम ही अपने देशके शासक थे, हमें अपने भले बुरेका ज्ञान था, हम जो कुछ करते थे बहुत विचार-पूर्वक और देश-हित तथा आत्महितको दृष्टिसे करते थे। हमें अपनी दशाका अच्छा ज्ञान था और स्वराज्यभोगी होनेके कारण हम सुखी थे, हमें किसी बातकी तकलीफ नहीं थी।
इस समय अर्थात् महाभारत युद्धके पश्चात् अन्य देशोंमें भारतीय लोग जा बसे थे । किंतु ये वे लोग थे, जिनकी भारत जैसे धार्मिक देश में गुज़र नहीं हो सकती थी। क्योंकि ये असभ्य, मांस-भोजी, निर्दय, मुर्ख और अधर्मी थे; हमारे भारतीय भील-कोलोंसे बहुत मिलते-जुलते थे। उन्हें वस्त्रोंकी आवश्यकता नहीं थी। वे नंगे बदन रहते और केवल एक लंगोटी लगाये रहते थे । अन्नकी उन्हें आवइसकता नहीं पड़ती थी, क्योंकि मारे हुए जीवोंका मांस ही उनका भोजन था । वे लोग यथासमय भारतीय नौकाओं तथा जहाजों द्वारा अन्य देशोंको गये तब वहाँके निवासियोंके साथ मिल कर उन्होंने अपनेको सभ्य बनाना आरंभ किया, अर्थात् सन्यताका पाठ उन्होंने भारतीयोंसे ही सीखा । हमारे पुराणोंते यह सिद्ध है
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