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विदेशो शक्कर।
१४७ " श्रीवेंकटेश्वर-समाचार " बंबईने १ जनवरी सन् १९०४ के अंकमें लिखा है-" हम बहुत प्रसन्न हैं कि शक्करका विषय उठने पर हमारे धर्मप्रेमी महाशय उसकी अधिक जाँच करने लग गये हैं । गंगापोल जयधुरके पंडित हनुमानप्रसादजी शर्माने इससे देशका रुपया विदेश जाने और धर्मभ्रष्ट होनेके सिवाय और कई दोष लिखे हैं । प्रथम तो यह भ्रष्ट है और इसके बने पदार्थ शीघ्र ही बिगड़ जाते हैं । फिर इसके सेवनसे दस्त और खूनकी बीमारी, मुखमें छाले पड़ने और हैजा होनेका भी डर रहता है । इसके विरुद्ध देशी शक्कर सब तरहसे लाभकारी और ग्राह्य है । आशा है कि इनके कथन पर लोग विचार करेंगे।" .
उक्त समाचार-पत्र जनवरी १९०४ के अंकमें पुनः लिखता है" गाजीपुरके पं० देवराज मित्रका कथन है कि मोरिसके ढङ्गकी चीनी शहाजहाँपुरमें भी बनाई जाती है। वही चाशनी तैय्यार करके एक कुलफीदार हौजमें उसे डालते हैं और हौज़के मुंह पर हड्डीका पिसा हुआ मैदा भी छिड़का जाता है । जो हो, इसमे संदेह नहीं कि विलायती चीनी बनाते समय उसका मैल साफ करनेके लिये चूना और जली हुई हड्डीका प्रयोग किया जाता है।"
यह बात बिलकुल उचित ही है, क्योंकि विदेशी शक्करके प्रवेशके साथ ही साथ प्लेगने भी भारतमें पदार्पण किया है । सन् १८९० ई० के पश्चात् ही विलायती शक्कर अधिक परिमाणमें यहाँ आने लगी है। उसी समयसे बंबई में प्लेग फैला; क्योंकि आरंभमें यह बंबईमें आई और वहीं इसका प्रसार हुआ था। ज्यों ज्यों विदेशी खाँडका प्रचार भारतके अन्य भागामें बढ़ता गया त्यों त्यों प्लेग भी
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