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भारतमें दुर्भिक्ष । mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm ऐसा कहना भारी भूल है। मैंने आज तक ऐसा मनुष्य कोई नहीं देखा जो एक बार काँटोंमें गिर कर बिद्ध हो गया हो और फिर न उठा हो, उसने काटे न निकाले हों, या काँटोंमें गिर कर यह कहा हो कि अब तो काँटोंमें गिर गये, सारे बदन में काँटे छिद गये, अब काँटोंसे नहीं निकलेंगे और सुख-पूर्वक यहीं पड़े रहेंगे। हमारे शरीरसे मरते समय तक भी देशका भला हो सके तो करते रहना चाहिये
" जो पराये काम आता धन्य है जगमें वहो । द्रव्यहीको जोड़ कर कोई सुयश पाता नहीं । आमरण नर देहका बस एक पर-उपकार है। हारको भूषण कहे, उस बुद्धिको धिक्कार है। लाभ अपने देशका, जिससे नहीं कुछ भी हुआ। जन्म उसका व्यर्थ है जलके बिना जैसे कुआ । पेट भरनेके लिये तो, उद्यमी है स्वान भी। क्या अभी तक है मिला उसको कहीं सम्मान भी ?" ॥
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