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भिक्षुक। " वेदपूर्णमुखं विप्रं सुभुक्तमपि भोजयेत् ।
न च मूर्खनिराहारं षड्ात्रिमुपवासिनम् ।" अर्थात्---विद्वान यदि अक्षुधित हो तो भी उसे भोजन कराना अच्छा, किंतु मूर्ख छः दिनका भूखा हो तो भी उसे भोजन न दे। देखिए कैसी अच्छी बात कही है। विद्वानों तथा मूोका कैसा भेद दिखाया है। किंतु हम तो शास्त्र-वाक्य भी नहीं मानते। यह दोष
भी हमारे ही सिर है कि हमने कुपात्रोंको दान दे-दे कर भारतको भिखारी बना दिया । देशको आलसियों, मुफ्तखोरों और मूसे भर दिया। दिन प्रति दिन भिक्षुकोंकी संख्या रक्तबीजकी तरह बढ़ रही है, क्योंकि भिक्षुकोंकी संतान भीख माँगनेवाली ही बनेंगी। और देखने में आया है कि उनके सन्तान बहुतायतसे पैदा होती है । इस भाँति यदि इनकी बढ़ती होती रही और देश इसी प्रकार दरिद्र और दुर्भिक्षसे घिरा रहा तो आश्चर्य नहीं कि कुछ वर्षोंमें ही सारे भारतके निवासी भिक्षुक ही भिक्षुक होंगे । गोसाई तुलसीदासजीने कहा है
" नार मुई घर संपति नासी
मूंड मुंडाय भये सन्यासी। अर्थात्---स्त्रीक मरते ही और धनहीन होते ही साधु बन कर भीख मागनेकी सूझती है । किंतु मेरे विचारसे धनहीन होते ही आलसी पुरुष भीख मांगने लगते हैं । आजकल तो स्त्रीकी कोई कैद नहीं, क्योंकि सैकड़ों साधु कहानेवाले धूर्त स्त्रियों और बाल-बच्चों सहित भीख माँग कर पेट भरते हैं।
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