Book Title: Bharat me Durbhiksha
Author(s): Ganeshdatta Sharma
Publisher: Gandhi Hindi Pustak Bhandar

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Page 270
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४१ दुर्भिक्ष । भद्रा ' इसी को कहते हैं। अकाल और कपड़ेकी महँगीसे गरीब प्रजा हाय हाय कर रही है और सरकारी यन्त्र अपनो चिर अभ्यस्त शाहाना चालसे ही चल रहा है। इसमें सन्देह नहीं कि हमारे लिये 'तुरन्त कपड़ा सस्ती दर पर बेचने का प्रबन्ध किया जाय' कह देना जितना सहज है, उतना ही सहज राजकीय कर्मचारियों के लिये निश्चयको कार्य में परिणत करना नहीं है; परन्तु समयकी आव. श्यकता और प्रजाकी विकट विपत्तिका ध्यान भी तो कोई चीज है। हमें सन्देह है कि जिन अधिकारियों पर बँधी दर पर मिलोंसे कपड़ा तैय्यार करवाने और उसे उचित मूल्य पर बिकवानेका भार डाला गया है वे अपने उत्तरदायित्वका यथार्थ अनुभव कर रहे हैं । कपडेकी महँगीसे एक और दुर्भाव भी फैल रहा है। मूर्ख लोग समझते हैं कि लड़ाई अभी बन्द नहीं हुई । उनका तर्क है कि-लाख समझाइए पर कौन सुनता है-यदि लड़ाई बन्द हो गई होती तो कपड़ा सस्ता हो जाता । इधर बुद्धिमान लोगोंकी सम्मति है कि अतिरिक्त समर-लाभ पर अतिरिक्त कर बैठानेका निश्चय ही मँहगीका वास्तविक कारण है । यदि सचमुच यही कारण है तो सरकारको तुरन्त अतिरिक्त कर उगाहनेका विचार त्याग देना चाहिए । समर बन्द हो जाने पर उसका लगाना सर्वथा अनुचित है । ऐंग्लो-इण्डियन तथा भारतीय सभी एक स्वरसे अतिरिक्त करका विरोध कर रहे हैं, परन्तु सरकार चुप है । यह बेपरवाई अति निन्द्य है। यदि हम भूलते नहीं हैं तो, दायित्व पूर्ण अधिकारियोंको सूचनामें स्वीकार किया गया था कि तीन वर्षका काम चलाने भरको भारतमें कपड़ा मौजूद है। इतना कपड़ा होते हुए भी, यह महँगी और भी बुरी तथा बेजड़ है । सरकारको शीघ्र ही कुछ कर दिखाना चाहिए । For Private And Personal Use Only

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