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कुछ और भी। उत्तम हैं । देखने में आता है कि व्यायामके सामान भी हमारे घरोंमें विदेशी ही भरे पड़े हैं । जैसे डम्बेल, सेंडोज डम्बल, फेंकनेका गोला आदि । किंतु ये सब निकम्मी वस्तुएँ हैं। भारतवासियोंके व्यायामके लिये मुद्गर आदि वस्तुएँ ही पर्याप्त हैं । आँखोंके सामने है कि प्रोफेसर राममूर्ति जैसे आधुनिक भीमने देशी ढंगकी कसरतोंके प्रतापसे विदेशोंमें पहुँच कर भारतका बल-परिचय दिया! एक देशी ढंगके खिलाड़ी और एक टेनिस क्रीकेटके खिलाड़ीके बलकी परीक्षा कभी आप स्वयं कर देखिए, किंतु हमें इस बातकी परवा नहीं, हम तो फैशनके भक्त हैं। हम डंकेकी चोट कहेंगे कि भारतका मामूलीसे मामूली काम भी देशके लिये लाभप्रद, सर्वोत्तम एवं कम-खर्च है। उदाहरणार्थ--बन्दूक चलानेके लिये हमें वर्तमान समय में ७) रु० सैंकडेके कातूंस खरीदने होते हैं और बन्दूककी कीमत सौ-पचास रुपये अलग है । किंतु भारतीय एक बासके बने धनुष पर, सस्ते तीर चढ़ा कर बन्दूकसे कहीं अधिक काम कर सकते हैं। साथ ही कार्तृस चल चुकने पर किसी कामका नहीं रहता, परंतु तीर पुनः पुनः काममें आ सकता है । महाभारतके प्रसिद्ध महाभारती अर्जुनका गांडीव वर्तमान किसी एक बड़ी भारी तोपसे क्या कम था ? वर्तमानमें भी राना सुलतानसिंहजी तथा भावनगर काठियावाड़के निवासी लल्लूभाई कल्याणजी शाह आदि पुरुषोंने धनुर्वेदके वे प्रयोग जो शास्त्रोंमें वर्णित हैं, लोगोंको कर दिखाये हैं। किंतु सारी बात तो यह है कि हम आँख मींचे बिना सोचे समझे विदेशी-प्रेमी हो गये हैं। अब हम लोगोंका कर्तव्य है कि जरा अपनी बुद्धिसे काम लें और दुनियाकी बनावटी
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